भीमा कोरेगांव की लड़ाई भारतीय इतिहास की एक अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रभावशाली घटना है, जिसे विशेष रूप से दलित समुदाय के शौर्य और आत्मसम्मान के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। यह युद्ध 1 जनवरी 1818 को पुणे के पास भीमा नदी के तट पर कोरेगांव में लड़ा गया था।
यहाँ इस ऐतिहासिक युद्ध के मुख्य विवरण दिए गए हैं:
1. पृष्ठभूमि (Background)
यह युद्ध तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध का हिस्सा था। उस समय पुणे के पेशवा बाजीराव द्वितीय अपनी सत्ता वापस पाने के लिए अंग्रेजों से लड़ रहे थे। अंग्रेज अपनी सेना को मजबूती देने के लिए शिरूर से पुणे की ओर बढ़ रहे थे, तभी कोरेगांव में दोनों सेनाओं का आमना-सामना हुआ।
2. सेना का संतुलन
यह लड़ाई असमान संख्या वाली सेनाओं के बीच थी, जो इसे और भी अविश्वसनीय बनाती है:
-
पेशवा की सेना: लगभग 28,000 सैनिक (जिसमें 20,000 घुड़सवार और 8,000 पैदल सैनिक थे, जिनमें मुख्य रूप से अरब, गोसाईं और मराठा शामिल थे)।
-
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना: मात्र 834 सैनिक (जिसमें ‘बॉम्बे नेटिव इन्फैंट्री’ की दूसरी बटालियन के लगभग 500 महार सैनिक और कुछ तोपची व घुड़सवार शामिल थे)।
3. महार सैनिकों का संघर्ष और कारण
इतिहासकारों के अनुसार, महार सैनिकों ने अंग्रेजों की तरफ से लड़ने का फैसला इसलिए किया क्योंकि पेशवा के शासनकाल में उनके साथ भारी छुआछूत और सामाजिक भेदभाव किया जाता था। महार समुदाय ने पहले पेशवा से अपनी सेना में शामिल करने का आग्रह किया था, लेकिन पेशवा ने इसे अस्वीकार कर दिया। इसके बाद उन्होंने अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए अंग्रेजों का साथ देने का फैसला किया।
4. युद्ध का परिणाम
करीब 12 घंटे तक चली इस भीषण लड़ाई में मुट्ठी भर महार सैनिकों ने अदम्य साहस का परिचय दिया। उन्होंने पेशवा की विशाल सेना को गाँव में घुसने से रोक दिया और उन्हें पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। अंततः पेशवा की हार हुई और उनकी सत्ता का पतन हो गया।
5. विजय स्तंभ (The Victory Pillar)
अंग्रेजों ने इस युद्ध में शहीद हुए सैनिकों की याद में कोरेगांव में एक ‘विजय स्तंभ’ (Victory Pillar) बनवाया। इस स्तंभ पर उन बहादुर सैनिकों के नाम अंकित हैं जिन्होंने इस युद्ध में अपने प्राणों की आहुति दी, जिनमें से अधिकांश नाम महार समुदाय के सैनिकों के हैं।
6. आधुनिक महत्व
-
1 जनवरी 1927 को डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने इस विजय स्तंभ का दौरा किया था। उन्होंने इसे दलितों की वीरता और अन्याय के विरुद्ध जीत का प्रतीक बताया।
-
तब से हर साल 1 जनवरी को लाखों लोग भीमा कोरेगांव जाकर उन शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
निष्कर्ष: भीमा कोरेगांव की लड़ाई केवल दो सेनाओं के बीच का संघर्ष नहीं था, बल्कि यह जातिवाद और सामाजिक अन्याय के खिलाफ एक विद्रोह का प्रतीक बन गया।
