अभिधम्मपिटक-

1. प्रथम और द्वितीय दोनों संगीतियों के वर्णन में ‘धम्म’ तथा ‘विनय’ के ही संगायन की चर्चा है. इससे यह स्पष्ट होता है कि पहले दो ही पिटक थे और अभिधम्मपिटक पीछे का है(राहुल सांस्कृत्यायन:पालि साहित्य का इतिहास). जाहिर है, अभिधम्म पिटक को बुद्ध के मत्थे मढ़ने का मकसद धम्म को दुरूह और आम आदमी की  समझ से दूर करना है.

2. विनयपिटक के चुलवग्ग में प्रथम और द्वितीय संगीति का वर्णन है, वह अधिक प्राचीन और महत्वपूर्ण भी. इसमें धर्म और विनय के संगायन की ही बात की गई है. पांचवीं सदी  के लगभग सिंहलद्वीप में रचित ‘महावंश’ और उसके बाद बुद्धघोषाचार्य के द्वारा विनयपिटक पर लिखी गई अट्ठकथा ‘समंतपासादिका’  में तीनों संगीतियों का वर्णन किया गया है. धर्म और विनय के साथ अभिधम्मपिटक के परायण की जो बात ‘समंत-पासादिका’ में कही गई है, स्पष्ट रूप से अनैतिहासिक है(प्रस्तावना: अभिधम्मसंगहो: भदंत आनन्द कोसल्यायन). 

3. अभिधम्मपिटक विभिन्न बौद्ध सम्प्रदायों के अलग-अलग हैं, जबकि सुत्तपिटक और विनयपिटक प्राय: सभी के समान हैं. सर्वास्तिवादी तो अभिधम्मपिटक को बुद्धवचन मानने से स्पष्ट इंकार करते हैं. अभिधम्मपिटक में किन्हीं ऐसे बुद्धवचनों की कल्पना भी नहीं की जा सकती जो प्राचीन चार निकायों(दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुक्तनिकाय, अंगुत्तरनिकाय) में न मिलते हो. संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि अभिधम्मपिटक में मौलिक बुद्धवचन नहीं हैं(डॉ. सुरेन्द्र अज्ञात: बुद्ध, अम्बेडकर और धम्मपद  पृ. 31-32 ). 

4. अभिधम्मपिटक बड़ा दुरूह और अति विशाल है(पालि साहित्य का इतिहास). दरअसल,  दर्शन-शास्त्रियों का उद्देश्य ही दिमाग को उलझाये रखना होता है. तो फिर यह सरल और छोटा कैसे हो सकता है?  भदंत आनंद कोसल्यायन के शब्दों में, वह दर्शन ही क्या जो आसानी से समझ आए. जो बात सरल हो, सहज हो, उसे ही दुरूह बना कर उपस्थित करना, दर्शन शास्त्रियों का धंधा है(दर्शन वेद से मार्क्स तक).  

5. उपनिषद काल में, परजीवी ब्राह्मण जब ‘ब्रह्म’ की भूल-भुलैया में गोता खा रहे थे-   ब्रह्म क्या है ? उत्तर- जिसे आँख नहीं देखती. प्रतिप्रश्न- आँख किसे नहीं देखती ? भांग की पिनक में चौथा उत्तर- ब्रह्म को. कुछ इसी पिनक में बुद्ध के ‘पटिच्च-समुप्पाद’ को ढाला गया-  अविद्या से संस्कार, संस्कार से विज्ञान, विज्ञान से षडायतन, षडायतन से स्पर्श, स्पर्श से वेदना, वेदना से तृष्णा, तृष्णा से उपादान, उपादान से भव, भव से जाति,  जाति से जरा-मरण ! 

6. ‘बौद्ध धर्म का रहस्य’  नामक व्याख्यान में टी. डब्ल्यु. रीस  डेविड कहते हैं- गौतम ने कथित तौर पर अपने जीवन के उस सर्वोच्च क्षण में इस चक्र की अवधारणा की थी जब बोधि वृक्ष के नीचे बैठे हुए उन्होंने उच्चतम स्तर की वह अंतर्दृष्टि(बुद्धत्व) प्राप्त की थी जिनके कारण उन्हें उनका ‘बुद्ध’ नाम मिला. मैं आपको ‘महावग्ग’ में निरुपित इस ‘जीवन-चक्र’ अथवा ‘कारण-श्रंखला’ को पढ़कर सुनाऊंगा और मैं भविष्यवाणी करता हूँ कि यद्यपि यह अंग्रेजी में लिखा गया है फिर भी आपको इसका एक शब्द भी समझ नहीं आयेगा(बौद्ध धर्म का इतिहास और साहित्य, पृ. 79 :संपादक ताराराम).

7. ईसा की दूसरी सदी में बौद्ध धर्म की महायान शाखा के प्रसिद्द बोद्धाचार्य नागार्जुन ने ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ को शून्यता के साथ अभिन्न बताया. जो प्रतीत्य समुत्पाद है, उसे ही हम शून्यता कहते है. वही उपाय है, वही प्रज्ञप्ति है, वही मध्यमा प्रतिपद है(गोविन्दचन्द्र पाण्डेय: बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास,  पृ. 93).  

8. डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर के अनुसार,  बुद्ध ऐसी बातों में कभी नहीं पड़े, जो दुरूह और आम आदमी की समझ से परे हो, जिसका सीधा सम्बन्ध समाज से न हो. बुद्ध के धर्म का केंद्र मनुष्य था.  उन्हें आत्मा-परमात्मा और मरने के बाद आदमी का क्या होता है, से कोई लेना-देना नहीं था(डॉ. बी. आर. अम्बेडकर: बुद्धा एंड हिज धम्मा). 

9. उपनिषदीय जीवन-मरण की श्रंखला को मान्य करने(गोविन्द चन्द्र पाण्डेय: बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ. 77) नहीं, बल्कि  इसके उलट सृष्टिकर्ता ईश्वर अथवा ‘ब्रह्म’ को नकारने डॉ अम्बेडकर के अनुसार, बुद्ध ने  ‘प्रतीत्य समुत्पाद’ का मारक तत्व दिया था(तृतीय कांड: चौथा भाग: बुद्धा एंड हिज धम्मा पृ. 198). 

10. अभिधम्म पिटक को सुगम बनाने का प्रयत्न चौथी सदी में आचार्य वसुबन्धु ने किया था((राहुल संकृत्यायन: पालि साहित्य का इतिहास). असंग के छोटे भाई वसुबन्धु ने एक ओर हीनयान दर्शन की शाखा के लिए वेभाषिक सम्मत तथा बुद्ध के दर्शन से बहुसम्मत अपने सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ अभिधर्मकोश तथा उसके ऊपर एक बड़ा प्रसिद्द भाष्य लिखा था(डॉ धर्मकीर्ति: महान बौद्ध दार्शनिक, पृ. 187).

11. आचार्य वसुबन्धु का प्रसिद्द ग्रन्थ ‘अभिधम्मकोश’ वेभाषिकों का ग्रन्थ है(भदंत आनन्द कोसल्यायान: दर्शन, वेद से मार्क्स तक, पृ. 132-33 ). सनद रहे, ति-पिटक की विभाषाओं और उनकी टीकाओं को मानने के कारण ही उनके सम्प्रदाय का नाम वेभाषिक पड़ा.

12. इसके मूल को पहले ‘मातिका’ कहा जाता था। मातिकाओं को छोड़कर सारा अभिधम्म-पिटक पीछे का है। इसका एक ग्रंथ ‘कथावत्थु’ तो तृतीय संगीति के प्रधान मोग्गल्लिपुत्त तिस्स ने स्थविरवादी-विरोधी निकायों के खण्डन के लिए लिखा था(वही,  पालि साहित्य का इतिहास: राहुल सांस्कृत्यायन)। 

13. अभिधम्मपिटक के 7 भाग हैं- 1. धम्म-संगणि- इसको अभिधम्म का मूल माना जा सकता है। इसमें नाम(मन) और रूप-जगत की व्याख्या प्रस्तुत की गई है। 2. विभंग- इसमें रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान स्कन्धों की व्याख्या दी गई है। 3. धातु-कथा- इस ग्रंथ में स्कन्ध, आयतन और धातु का संबंध धर्मों के साथ किस प्रकार से हैं, इसे व्याख्यायित किया गया हैं। 4. पुग्गल-पञ्ञति- पुग्गल(पुद्गल) की पञ्ञति(प्रज्ञप्ति) करना इस ग्रंथ का विषय है। इसमें व्यक्तियों का नाना प्रकार से विवेचन है। 5. कथा-वत्थू- इसके 23 अध्यायों में 18 निकायों के सिद्धांतों को प्रश्न और उसका समाधान के रूप में स्थविरवादी सिद्धांत की स्थापना की गई है। 6. यमक- इस ग्रंथ में प्रश्नों को यमक(जोड़े) के रूप में रख कर विषय को प्रस्तुत किया गया है। 7. पट्ठान- यह आकार में बहुत बड़ा अत्यन्त दुरूह शैली का ग्रंथ हैं। इसके 4 भाग हैं। इस ग्रंथ में धम्मों के पारस्परिक प्रत्यय-संबंधों का विधानात्मक और निषेघात्क अध्ययन प्रस्तुत किया गया है(वही, पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 167-179)।