म्यंमा के दो श्रद्धालु व्यापारी जब भगवान बुद्ध की केशधातु लेकर अपने देश लौटे तब वहां के लोगों ने श्रद्धापूर्वक इस केशधातु को श्वेडगोन पहाड़ी पर सन्निधानित कर एक पगोडा बनाया। उसके साथ-साथ शहर में सूले पगोडा बना और तट पर बोटठाऊ पगोडा बना। उस समय हो सकता है कि किसी सिरफिरे अदूरदर्शी ने इन पगोडाओं का यह कह कर विरोध किया हो कि जहां देश में इतनी गरीबी है वहां इन पगोडाओं पर खर्च क्यों किया जाता है? आगे जाकर श्वेडगोन विशाल भी हुआ और उस पर स्वर्णिम रंग चढ़ा, तब भी संभवतः उसका विरोध हुआ हो। और फिर जब उस पर स्वर्णपत्र लगे, तब तो हो सकता है और भी विरोध किया गया हो।
और इतना ही नहीं, सारे देश में सहस्राधिक पगोडाओं का निर्माण हुआ और उनमें से अनेकों पर स्वर्णिम रंग चढ़े और किसी-किसी पर स्वर्णपत्र भी लगाये गये। उन्हें देख कर भी हो सकता है किसी नासमझ व्यक्ति ने विरोध किया होगा।
इसी प्रकार पड़ोसी देश थाईलैंड में एमरोल्ड यानी पन्ने की बुद्धमूर्ति बनाकर, उस पर विशाल पगोडा बना और इसके अतिरिक्त अन्य अनेक पगोडा बने। यों ही कंबोडिया, लाओस और नीचे जावा, सुमात्रा तक बोदोबदूर जैसे विशाल पगोडा बने । इसी प्रकार लंका में भगवान बुद्ध की धातु पर और भिक्षु महेंद्र की धातु पर पगोडा बने। मैं नहीं जानता कि इन सारी जगहों पर इन पगोडाओं का विरोध हुआ हो । परंतु हजार विरोध होने पर भी इन पगोडाओं से जो लाभ हुआ वह अमित है, अतुलनीय है।
पवित्र भूमि भारत भारत में बोधिवृक्ष के तले संबोधि प्राप्त महामानव बुद्ध के प्रति श्रद्धा के प्रतीक ये सारे स्तूप उसी प्रकार के बने जैसे कि भारत में भगवान की पावन धातु पर बने थे। इनका उद्देश्य यह याद दिलाने के लिए था कि भगवान की यह कल्याणी विद्या हमें भारत से प्राप्त हुई है। आज 2200 वर्ष बीत जाने पर भी जिस देश से उन्हें सद्धर्म मिला उस भारत देश की धरती के प्रति वहां के करोड़ों लोगों के मन में अपार सम्मान और श्रद्धा है।
मैंने स्वयं देखा कि म्यंमा का प्रधानमंत्री ऊ नू हमारे बरमी प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्व करते हुए जब कलकत्ता (कोलकाता) पहुँचा तब हवाई जहाज से उतरते हुए अंतिम सीढ़ी पर बैठ गया और धरती को हाथ से छू कर अपने माथे पर लगाया । उसने हमें बताया कि भारत की इस पावन धरती को नमस्कार किये बिना मैं इस पर पांव कैसे रखें? इतना ही नहीं, हजारों, लाखों श्रद्धालु लोग अपने देशों से भारत आते हैं और यहां की तपोभूमियों की माटी सिर पर लगाते हैं, अपने बच्चों के सिर पर लगाते हैं।
सम्राट अशोक भगवान की मूल वाणी और कल्याणी विपश्यना विद्या सम्राट अशोक ने ब्रह्मदेश की स्वर्णभूमि भेजी, जहां ये आज तक शुद्ध रूप में कायम रखी गयीं। जिस व्यक्ति से उन्हें धर्म मिला, उस सम्राट अशोक के प्रति भी उनके मन में असीम श्रद्धा और कृतज्ञता का भाव है। इसी कारण वहां के गृहस्थ और भिक्षु प्रातःकालीन प्रार्थनाओं में यह पद भी गाते हैं –
यथा रक्खिसु पोराणा, सुराजानो तथेविमं । राजा रक्खतु धम्मेन, अत्तनोव पजं पजं ॥
जैसे पुराने राजाओं ने, इसमें उनका संकेत सम्राट अशोक की ओर ही होता है, अपनी प्रजा का संरक्षण और पालन उसी प्रकार किया, जैसे पिता अपनी संतान की करता है। वैसे ही आज का हमारा राजा भी अपनी प्रजा का संरक्षण और पालन अपनी संतान की भांति करे । स्पष्ट है कि सम्राट अशोक उनके लिए आदर्श राजा था। जैसे अपने यहां राम-राज्य की महिमा गायी जाती है, वैसे ही उन देशों में अशोक-राज्य की महिमा गायी जाती है, जो सही भी है।
अशोक ने अपने शिलालेखों में स्पष्ट किया है कि वह कितना प्रजावत्सल था। देवानंपियो प्रियदसि राजा यसो व कीति व न महाथावहा मञते अञत तदात्पनो दिघाय च मे जनो धंमसुम्सुंसा सुनुसता धंमयुतं च अनुविधियतां- गिरनार शिला दशम अभिलेख – देवानांप्रिय प्रियदर्शी राजा; यश अथवा कीर्ति को बड़े महत्त्व की वस्तु नहीं मानते। बजाय इसके उनकी प्रजा अभी और दीर्घ काल तक, धर्म की बात सुनने को लालायित रहे और धर्म का आचरण करे, यही उनका मंतव्य है। सम्राट अशोक अपने अधिकारियों को इन शब्दों में आदेश देता है –
स हेवं कटू कंमे चलितविये अस्वासनिया च ते एन ते पापुनेयु अथा पित हेवं ने लाजा ति अथ अतानं अनुकंपति हेवं अफेनि अनुकंपति अथा पजा हेवं मये लाजिने.– जौगड शिला द्वितीय पृथक अभिलेख –
धर्म का आचरण करते हुए आपको (मंत्रियों को) अपना कर्त्तव्य-पालन करना चाहिए और प्रजा को आश्वासन देना चाहिए ताकि वह समझती रहे कि राजा हमारे लिए एक पिता समान है। जैसे पिता अपनी संतान पर कृपा करते हैं वैसे ही राजा हमारे ऊपर कृपा करते हैं।
संप्रदायवाद की निंदा करते हुए सम्राट अशोक ने कहा यो हि कोचि आत्पपासंडं पूजयति परपासंडे व गरहति सवं आत्पपासंडभतिया किंति आत्पपासंडे दीपयेम इति सो च पुन तथ करातो आत्पपासंडे बाढतरं उपहनाति – गिरनार शिला द्वादश अभिलेख अपने संप्रदाय के प्रति आसक्ति होने के कारण जब कोई इस भाव से कि मैं अपने संप्रदाय को कैसे प्रकाशित करू; अपने संप्रदाय की प्रशंसा और अन्य संप्रदायों की निंदा करने लगता है, तब वह ऐसा करता हुआ वास्तव में अपने संप्रदाय की खूब बढ़-चढ़ कर हानि ही करता है। इस मंतव्य के कारण ही अशोक के राज्य में कहीं कोई सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ। प्रजा में सुख-शांति बनी रही। इन सच्चाइयों को स्मरण करते हुए पड़ोसी देश के लोगों के मन में भारत के प्रति और भारत से भगवान बुद्ध का सद्धर्म भेजने वाले सम्राट अशोक के प्रति अत्यंत कृतज्ञता और सम्मान का भाव है। वहां के निवासियों की रग-रग में सम्राट अशोक के प्रति कैसा अपार स्नेह और सम्मान भरा हुआ है, इसका एक उदाहरण –
म्यंमा एक नारीप्रधान देश है।
यहां किसी के घर में जब कोई पुत्री जन्म लेती है तब वैसी ही खुशियां मनायी जाती हैं जैसी कि भारत में किसी के यहां पुत्र के जन्म लेने पर। क्योंकि वहां विवाह होने पर पुत्री अपनी ससुराल नहीं जाती बल्कि दामाद घर में आता है। फिर भी हर मां की यह इच्छा अवश्य होती है कि वह कम से कम एक पुत्र को तो अवश्य जन्म दे, जिसे राजकुमार की भांति सजाकर, गाजे-बाजे के साथ संघ को अर्पित करके अपने आपको धन्य मान सके, जैसे कि सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र को अर्पित किया था। और जब कभी कोई माता-पिता अपने पुत्र को संघ को अर्पित करते हैं तब उसे राजकुमार महेंद्र की भांति राजसी पहनावा पहना कर, घोड़े पर चढ़ा कर, धूमधाम से जुलूस निकाल कर, संघाराम में ले जाते हैं और वहां वह श्रामणेर बनता है। इस धूमधाम में गरीब से गरीब माता-पिता का गांव-नगर के लोग साथ देते हैं। अधिकतर बच्चे थोड़े समय के लिए ही श्रामणेर बनते हैं परंतु कुछ आजीवन भिक्षु बने रहते हैं। इस प्रकार लगभग 2200 वर्ष पूर्व की उस घटना को वे आज भी श्रद्धापूर्वक जीवित रखे हुए हैं।
उन देशों में बने अनेक पगोडा, वहां के निवासियों को भारत की, भगवान बुद्ध की, उनकी कल्याणी शिक्षा की, तथा उसे उनके यहां भेजने वाले सम्राट अशोक की, याद दिलाते हैं और उनके प्रति अपनी श्रद्धा जगाते हैं। ठीक इसी प्रकार यह ‘ग्लोबल विपस्सना पगोडा’ सयाजी ऊ बा खिन की महानता का तथा उनके प्रति कृतज्ञता का प्रतीक है।
सद्धर्म की पुनस्र्थापना भारत ने भगवान बुद्ध की मूल वाणी, उसकी अर्थकथाएं, टीकाएं, अनुटीकाएं सब गंवा दी और विपश्यना साधना को तो नेस्तनाबूद ही कर दिया। यहां तक कि साधना तो दूर, भारत की भाषाओं से ‘विपश्यना’ शब्द ही लुप्त कर दिया गया। बुद्ध की सही शिक्षा के लाभ से यहां के लोग वंचित हो गये। ऐसी अवस्था में म्यंमा के एक महान संत सयाजी ऊ बा खिन के मन में यह धर्मसंवेग जागा कि जो अनमोल रत्न हमें भारत से प्राप्त हुआ, उसका हम पर बड़ा ऋण है। आज भारत उन्हें खो बैठा है। यह पुरातन ऋण हमें चुकाना है। इसीलिए उन्होंने अपने धर्मपुत्र के माध्यम से इन दोनों रत्नों को भारत लौटाया। परिणाम यह हुआ कि लगभग 2000 वर्ष के अंतराल के बाद भारत के मुंबई शहर में विपश्यना का पहला शिविर लगा। बुद्ध की मूल वाणी और उस संबंधी सारा पालि साहित्य यहां नागरी लिपि में प्रकाशित किया गया। फिर इसे अनेक लिपियों में सीडी-रोम में और इंटरनेट में भी समाहित किया गया। यह सब कुछ आज सर्वसामान्यजन के लिए निःशुल्क उपलब्ध है।
भारत ने जिस बुद्ध वाणी और विपश्यना विद्या को पूर्णतया खो दिया था उसे म्यंमा ने संभाल कर रखा, इस कारण भारत तथा विश्व के लोग म्यंमा का उपकार मानते हैं और सदियों तक मानते रहेंगे। यहां मुंबई के गोराई में बना विशाल ग्लोबल विपश्यना पगोडा तथा अन्य बीसों पगोडा यहां के लोगों के मन में सदैव म्यंमा की, और भगवान बुद्ध की खोयी हुई विपश्यना विद्या को वापस लौटाने वाले महान संत सयाजी ऊ बा खिन की, याद दिलाते रहेंगे। उनके प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता जगाते रहेंगे। वह दिन दूर नहीं जबकि भारत के और विश्व के अनेक विपश्यी म्यंमा की तीर्थयात्रा करेंगे और श्वेडगोन पर, सयाजी ऊ बा ख़िन के केंद्र पर, सयातैजी के केंद्र पर, लैडी सयाडोजी के केंद्र पर, श्रद्धापूर्वक नमन करते हुए ध्यान करेंगे। कृतज्ञता की यही परिणति होती है।
सदियों तक लोग मुंबई के इस विशाल पगोडा में तथा विश्व के अन्य पगोडाओं में नमन करते हुए वहां ध्यान करेंगे और कृतज्ञ होंगे। वहां सब जाति, गोत्र, वर्ण, वर्ग, संप्रदाय और देशों के लोग साथ बैठ कर ध्यान करेंगे तब विश्वबंधुत्व का आदर्श कायम होगा और फूले–फलेगा।
कृतज्ञता धर्म का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। यदि कोई इन सच्चाइयों को न समझ कर आलोचना करता है तो वह दया का पात्र है। हमें चाहिए कि उसके प्रति मैत्रीभाव रखें! सच्चाई उसकी समझ में आये! उसका मंगल हो! विपश्यना विद्या द्वारा सारे विश्व का मंगल हो!
मंगल मित्र,
सत्य नारायण गोयन्का
फ़रवरी 2010 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित