“गौतम बुद्ध को गृहस्थ जीवन की कठिनाइयों और पेचीदगियों की जानकारी कहां थी? राजकुमार के जीवनकाल में विवाह के पश्चात पुत्र राहुल के जन्म लेते ही उन्होंने गृह त्याग दिया। तदनंतर गृहत्यागी श्रमण का जीवन जीते रहे। उन्होंने स्वयं गृहस्थ का सफल जीवन नहीं जिया । वे औरों को गृहस्थ धर्म के से सिखा पाते भला? जीवन के लगभग पचास वर्ष भिक्षु का जीवन बिताने के कारण भिक्षु जीवन की समस्याओं को खूब समझते थे, अतः उनकी शिक्षा भिक्षुओं के लिए तो अत्यंत उपादेय रही, परंतु गृहस्थों को तो वे यही सिखाते रहे कि गृहस्थ जीवन के जंजाल को छोड़ कर भिक्षु बन जाओ । इसी में तुम्हारा कल्याण है । इसी कारण अपने जीवनकाल में उन्होंने बहुत बड़ी संख्या में गृहस्थों को भिक्षु बनाया। अतः गृहस्थ उनकी शिक्षा से भिक्षु भले बन जायं, परंतु आदर्श गृहस्थ कदापि नहीं बन सकते।”
अपने देश में ऐसी गलत धारणा किसी एक व्यक्ति की ही नहीं, बल्कि अनेकों की है। औरों की क्या कहूं, मैं स्वयं इस गलत धारणा का वर्षों शिकार रहा। ३१ वर्ष की उम्र में भगवान बुद्ध की सिखायी हुई कल्याणी विपश्यना के संपर्क में आया । गृहस्थ रहते हुए उससे लाभान्वित हुआ। किसी ने मुझसे भिक्षु बनने के लिए नहीं कहा।
मेरे गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन सद्गृहस्थ थे। मेरे दादा गुरु सद्गृहस्थ थे और करोड़ों की संख्या में वहां बुद्धानुयायी गृहस्थ हैं । पर भिक्षु तो सारे देश की आबादी का एक प्रतिशत भाग भी नहीं हैं।
विपश्यना से लाभान्वित होकर और उसे सर्वथा निर्दोष पाकर मैंने बुद्धवाणी काअध्ययन शुरू किया तो देखकर आश्चर्य हुआ कि जहां उन्होंने भिक्षुओं को आदर्श गृहत्यागी का जीवन जीने के अनेक उपदेश दिये, वहां गृहस्थों को आदर्श गृहस्थ जीवन जीने के लिए अनेक उपदेश दिये। बहुत बड़ी संख्या में उपदेश ऐसे भी थे जो दोनों पर लागू होते थे। दोनों के लिए कल्याणकारी थे।
भगवान बुद्ध को केवल भिक्षुओं का गुरु कहना सच्चाई के सर्वथा विपरीत है। कोई गृहस्थ हो या भिक्षु, कोई राजा हो या रंक , धनी हो या निर्धन, विद्वान हो या अनपढ़, ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो, शूद्र हो या अतिशूद्र, इस प्रदेश का हो या उस प्रदेश का, ऐसी बोली-भाषा बोलने वाला हो या वैसी, पुरुष हो या नारी, बालक हो या वृद्ध – उनकी शिक्षा सबके लिए थी। वे सही माने में विश्वगुरु थे, लोक गुरु थे।
राजकुमार सिद्धार्थ 16 वर्ष की उम्र में विवाहित हुए और 29 वर्ष की उम्र में गृह त्याग कर श्रमण हुए। इन 13 वर्षों में भी गृहस्थ जीवन की अनेक बारीकियां उनके अनुभव में अवश्य आयी होगी। संबोधि प्राप्त होने पर उनका लोक-संपर्क बड़ी संख्या में बढ़ा। संसार चक्र की उलझनों को जिन बारीकियों से इस महापुरुष ने समझा और लोगों को समझाया, वह अद्वितीय है। उनके द्वारा गृहस्थों को दिये गये उपदेश किसी एक संप्रदाय के लोगों के लिए नहीं, बल्कि सबके लिए हैं। कोई व्यक्ति बुद्धवाणी का साधारण-सा अध्ययन करे,तो भी देखेगा कि भगवान बुद्ध के उपदेश गृहस्थों के लिए कितने कल्याणकारी हैं।
धर्म के रास्ते चलता हुआ कोई भी गृहस्थ स्वयं महसूस करने लगता है कि जीवन-जगत के सारे दुःखों को पार कर नितांत परम सुख की अनुभूति तो निर्वाणिक अवस्था में ही हो सकती है। लेकिन इस बीच इस सतत प्रवहमान जीवनधारा के उतार-चढ़ावों का सामना करते हुए उनसे अपने आपको अविचलित रखा जा सकता है। सद्गृहस्थ को अपनी जिम्मेदारियां निभाते हुए आगे बढ़ते रहना है और जीवन में नैतिकता को पुष्ट करते रहना है।
निसर्ग का यह अटूट नियम है कि जैसा कारण वैसा ही उसका परिणाम होता है। जैसा बीज वैसा ही फल उपजता है। जैसा कर्म वैसा फल प्राप्त होता है। सत्कर्म का सत्फल,दुष्कर्म का दुष्फल | कोई व्यक्ति प्रकृति के इस अटूट नियम को माने या न माने, परंतु संसार चक्र इन नियमों से बँधा हुआ ही चलता है। जैसे कोई व्यक्ति किसी ऊंचे पेड़ से गिर पड़े तो उसके हाथ-पांव टूट सकते हैं, प्राणांत भी हो सकता है, चाहे वह प्रकृति के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत को माने या न माने।
भगवान ने यह जो वैज्ञानिक विपश्यना विद्या सिखायी, उसका अभ्यास कोई भिक्षु करे या गृहस्थ, उसे कम-सिद्धांत के बल पर यह खूब स्पष्ट समझ में आने लगता है कि मैं जो भी हूं, जैसा भी हूं, अपने पूर्व तथा वर्तमान कर्मों का समुच्चय हूं, संग्रह हूं। वह खूब समझने लगता है कि अब तक के अपने कर्म-संग्रह का वह स्वयं जिम्मेदार है और उनके परिणामों के अनुकूल फल के इस अटूट नैसर्गिक नियम में कोई अन्य व्यक्ति हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
सामान्य गृहस्थ को शील में प्रतिष्ठित होकर समाधि और प्रज्ञा में पुष्ट होने के लिए ही भगवान ने विपश्यना की कल्याणकारी विद्या दी और उसे एक आदर्श व्यक्ति बनने का उपाय बताया। व्यक्ति के सुधरने से ही समाज सुधरता है। व्यक्ति की महानता में ही समष्टि की महानता है। इस प्रकार व्यष्टि और समष्टि को अपने-अपने क्षेत्र में आदर्श जीवन जीने की व्यावहारिक शिक्षा प्रदान कर एक आदर्श मानवी समाज के गठन का मार्ग प्रशस्त किया।
तीन प्रकार की अधार्मिक बुराइयां
उन दिनों गृहस्थों में तीन प्रकार की ऐसी बुराइयां समा गयी थीं जिनके कारण धर्म की असीम हानि हो रही थी, ग्लानि हो रही थी, धर्म का पतन हो रहा था, विनाश हो रहा था।
1. धर्म के नाम पर जीवहत्या
जहां सात्विक यज्ञ समाज के कल्याण के लिए होते थे, देश के । राजा और धनपतियों द्वारा धन के समविभाग के लिए होते थे, वातावरण के प्रदूषण को दूर करने के लिए होते थे वहां स्वार्थ में अंधे होकर स्वर्ग की कामना का मिथ्या आश्वासन देकर इसमें निरीह पशुओं की बलि चढ़ाने का विधान जोड़ दिया गया। मनुष्य सभी प्राणियों के प्रति अपनी स्वाभाविक करुणा के उदात्त सद्भावों से च्युत हो गया। भगवान बुद्ध ने अत्यंत करुणा के साथ समाज में फैली हुई इस दुष्प्रथा का विरोध किया और उनके जीवनकाल में ही । राजन्यवर्ग, श्रेष्ठिवर्ग और पुरोहित वर्ग इस नितांत अधार्मिक प्रवृत्ति से छुटकारा पाने लगे। भगवान बुद्ध के बाद कुछ सदियां बीतते-बीतते यज्ञ के नाम पर चलने वाला यह अधर्म समाज से सर्वथा समाप्त हो गया। यद्यपि अब भी कहीं-कहीं किसी देवी को खुश करने के लिए मूक पशुओं की बलि दी जाती है।
2. नर-नारियों के क्रय-विक्रय
दूसरी बुराई यह चल पड़ी थी कि लोग आजीविका के लिए पशुओं का पालन करते और उन्हें मोटे-ताजे बनाकर कसाई को बेच देते थे। भगवान ने गृहस्थ के लिए ऐसी आजीविका न करने की शिक्षा दी। इतना ही नहीं, इससे भी बदतर एक और अमानवीय व्यवसाय चलता था, जहां मनुष्यों को गुलाम बना कर बेचा जाता था। कभी-कभी लोग दासी के नाम पर युवतियों को दुराचार के लिए भी खरीदते थे। उन दिनों के साहित्य में हम शासकों और धनी गृहस्थों के यहां नौकर-चाकरों के साथ-साथ दास-दासियों के अस्तित्व का बहुधा वर्णन पाते हैं। यह वर्णन भी देखते हैं कि किसी को दान-दक्षिणा के रूप में, अथवा पुरस्कार के रूप में, अनेक अलंकृत गायें और दासियां प्राप्त होती हैं। कोई कैसे इतनों का पालन करे? अत: ये बिकती थीं। यों क्रय-विक्रय का व्यवसाय पनपता था। भगवान ने सद्गृहस्थ के लिए ऐसे व्यवसाय की मनाही की और परिणामस्वरूप देश से गुलाम प्रथा बहुत अंशों में क्षीण हुई और आगे जाकर पूर्णतया समाप्त हो गयी । यद्यपि बंधुआ मजदूरों के रूप में चल रहे गुलामी के इस नये अवतार का निर्मूलन होना बाकी है। इसी प्रकार पशुओं के व्यवसाय का भी।
3. जन्म के आधार पर ऊंच-नीच का भेदभाव
तीसरी बुराई यह चल पड़ी थी कि जन्म को लेकर समाज में मनुष्य-मनुष्य के बीच ऊंच-नीच का गहरा भेदभाव स्थापित कर दिया गया था। जन्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था नितांत धर्म-विरोधी थी। एक व्यक्ति कितना ही अधार्मिक जीवन जीता हो, परंतु अमुक जाति की मां के गर्भ से जन्मा हो तो वह पूज्य माना जाता था, उच्च माना जाता था। इसी प्रकार कोई व्यक्ति कितना ही धार्मिक जीवन जीता हो, परंतु अमुक जाति की मां के गर्भ से जन्मा हो तो नीच माना जाता था, निम्न कोटि का माना जाता था, अस्पृश्य माना जाता था। स्पष्ट ही जाति की तुलना में धर्म को ही न बना दिया गया था, गौण बना दिया गया था।
धर्म की इस प्रकार हुई हानि को,ग्लानि को दूर करने के लिए भगवान बुद्ध ने अथक परिश्रम किया और बहुत अंशों में सफल भी हुए। उन्होंने लोगों को बड़े प्यार से समझाया कि मानवी माता के गर्भ से जो जन्म लेगा वह मानव ही होगा; पशु नहीं, पक्षी नहीं, सरीसृप नहीं। वह यदि दुष्कर्म हो, दुराचारी हो, दुष्ट हो तो सचमुच पतित हुआ और यदि सत्कर्मी हो, सदाचारी हो, सज्जन हो तो महान हुआ, पूज्य हुआ। एक व्यक्ति अपनी नासमझी से दुष्कर्म करता हुआ नीच भी हो सकता है, पतित भी हो सकता है और वही व्यक्ति आगे चल कर समझदारी द्वारा सदाचारी हो सकता है, सज्जन हो सकता है तो सम्माननीय हो सकता है, पूज्य हो सकता है।
इसी प्रकार महादुष्कर्मी होने पर भी महज धनकुबेर होने के कारण किसी को महान मान लेना नितांत धर्मविरोधी कृत्य है। महानता धर्म की होनी चाहिए। ऊंच-नीच के लिए अन्य कोई मापदंड सही हो ही नहीं सकता। गृहस्थ है तो उसे ईमानदारी के साथ, परिश्रम और बुद्धिमानी के साथ धनोपार्जन करना आवश्यक है। परंतु साथ साथ धर्मनिष्ठ रहते हुए, आदर्श नैतिक जीवन जीते हुए अर्जित धन का सदुपयोग करना भी उतना ही आवश्यक है। इसी में उसके मनुष्य जीवन की सफलता है, सार्थकता है।
दुर्भाग्य से भगवान बुद्ध के थोड़ी ही सदियों बाद जात-पांत के विषैले नाग ने फिर अपना सिर उठाया और सारे समाज को बलपूर्वक विनाशकारी विभाजन के नागपाश में जकड़ लिया, जिसका दुष्परिणाम देश सदियों बाद आज तक भुगतता चला आ रहा है। भगवान बुद्ध द्वारा गृहस्थों को दी गयी सदाचरण-प्रधान शिक्षा समाज में कायम रहती तो आज देश का नक्शा कुछ और ही होता।
भगवान बुद्ध मनुष्य समाज के पहले धर्मगुरु थे जिन्होंने धर्म के नाम पर होने वाली पशु-बलि के अधार्मिक कृत्य का विरोध किया, जिन्होंने सत्कर्मों और सद्गणों के स्थान पर जन्म के आधार पर ऊंच-नीच के विभाजन की अधार्मिक मान्यता का विरोध किया, जिन्होंने नर-नारियों के क्रय-विक्रय का ही नहीं, बल्कि पशुओं के क्रय-विक्रय का भी विरोध किया।
धर्म की पुनर्स्थापना के लिए यह तब भी आवश्यक था, आज भी आवश्यक है। आदर्श गृहस्थ जीवन के लिए और एक आदर्श मानव समाज के लिए प्राणियों के प्रति करुणा और मनुष्य-मनुष्य में समानता का भाव रखना आवश्यक है। एक आदर्श मनुष्य समाज के संस्थापनार्थ भगवान द्वारा गृहस्थों को दी गयी शिक्षा सारे विश्व के लिए एक महत्त्वपूर्ण देन है।
धरती, जल और आकाश पर चाहे जितना प्रभुत्व स्थापित करने का दावा कर ले, पर जब तक मनुष्य अपने मन पर प्रभुत्व नहीं स्थापित कर पाता, तब तक वह पराजित ही रहता है। अपने आप पर, अपने मन पर विजय प्राप्त करने के लिए भगवान बुद्ध ने एक ऐसी सक्रिय विद्या दी, जिससे हम अपने आप को जान सकें , अपने स्वभाव को जान सकें | अपने आप पर अपना प्रभुत्व स्थापित करके अपने बिगड़े हुए स्वभाव को सुधार सकें ,जिससे अपना भी कल्याण हो, तथा औरों का भी। बुद्ध द्वारा गृहस्थों को दी गयी सार्वजनीन शिक्षा की यही महानता है।
सम्राट अशोक और देश की रक्षा
उनके जीवनकाल के दो सौ वर्ष पश्चात भारत के एक आदर्श सम्राट अशोक ने बुद्ध की शिक्षा के अनुसार धर्म को प्रबल प्रोत्साहन दिया, जिससे आदर्श समाज का गठन हो सका। उसका प्रभाव अड़ोस-पड़ोस तक ही नहीं, दूर देशों तक प्रसारित हुआ। इसके साथ-साथ उसने आदर्श राजधर्म का एक उज्ज्वल उदाहरण प्रस्तुत किया कि अपनी
साम्राज्यलिप्सा की पूर्ति के लिए कमजोर पड़ोसी राज्यों पर कभी हमला न करे, परंतु देश की रक्षा के लिए सतत सजग और सबल बना रहे । प्रजा को अपनी संतान की तरह सुरक्षित रखे। अपनी संतान की तरह उसका पालन-पोषण करे । राजधर्म का यह उज्ज्वल आदर्श भगवान की शिक्षा के कारण अशोक के राज्य में प्रकट हुआ। पड़ोसी देशों के साथ घनिष्ठ स्नेह-संबंध स्थापित करने का भी एक अनुकरणीय उदाहरण सामने आया, जिसका प्रभाव सदियों बाद आज तक भी कायम है।
बुद्ध की शिक्षा के बारे में अपने मन में छाये हुए भ्रांति के जालों को दूर करें। उन्होंने गृहस्थों के लिए जो सार्वजनीन, सार्वकालिक और सार्वदेशिक व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया, उसे स्वयं आजमा कर देखें। अपने मन के मालिक बन कर अपने गृहस्थ जीवन को सुख, शांति और संतुष्टि से भर लें तथा अपने साथ-साथ औरों के कल्याण के भी कारण बन जायं। एक आदर्श मानव समाज का निर्माण करने में सहायक हो जायं। इसी में मानव जीवन कीसफ लताहै। लोक गुरु भगवान की कल्याणी शिक्षा की यही सही उपादेयता है।
~सत्यनारायण गोयन्का
Sep 2005 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित