मैंने तुरंत गर्दन को पीछे, दाहिनी ओर पलट कर देखा तो मेरे होशोहवास उड़ गये। मेरी नजर अब ब्राऊन कलर के उस नागराज पर थी और मेरे मेरुदंड से सटे नागराज की दो काली गोलाकार आंखे दाहिनी ओर नीचे चमक रही थीं। देखते ही मैं समझ गया कि मृत्यु सामने नागराज के रूप में खड़ी है। अब तो किसी समय मरना ही है। तैयार हो जाओ। असह्य मृत्यु पीड़ा में से गुज़रना पड़ेगा………..
बाद में पूज्य गुरुजी ने बताया “साधक के शरीर से हमेशा मंगल मैत्री निकलती रहती है” इस वजह से यह आस-पास होते हैं तो नजदीक आ जाते हैं। मंगल मैत्री उन्हें अच्छी लगती है। इन्हें खूब मंगल मैत्री देनी चाहिए……….
मेरा पहला विपश्यना शिविर नागपुर के कच्छी भवन में 12 सितंबर 1987 में पूरा हुआ। तब से एक के बाद एक कई शिविर हुए। सतिपट्ठान शिविर भी पूरा हुआ, जिसका मानस पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। पूज्य गुरुदेव, गुरुमां तथा दादागुरु पूज्य सयाजी ऊ बा खिन के बताये हुये पावन विपश्यना साधना के प्रति समर्पित श्रद्धाभाव तथा कृतज्ञता का भाव मन में गहरा बना रहता था।
वर्ष 1992 की घटना है। मैं इंजीनियरिंग कॉलेज के अंतिम वर्ष की परीक्षा में बैठा था। (मुझे प्रकृति के सान्निध्य में रहना बड़ा अच्छा लगता था।) शीतकाल के दिन थे। मैं और मेरा मित्र देवनारायण दोनों नागपुर शहर के बाहर गये। रास्ते के दोनों ओर हरे-भरे चने के खेत लहरा रहे थे। उन हरे-भरे खेतों को देखकर मेरा मन प्रसन्नता से भर गया।
मैंने खेत के मालिक से खेत में जो नीम का पेड़ था, वहां बैठने की अनुमति ली और पेड़ के तने को टेक कर पालथी लगाकर शीतल हवा का आनंद लेने लगा तथा मित्र को पेड़ की छाया में मेरे सामने बैठने को कहा। मेरा मित्र न्यूजपेपर निकाल कर पढ़ने में व्यस्त हो गया।
लगभग पौन घंटे के बाद मेरे सिर पर (ब्रह्म-स्थल क्षेत्र में) कोई भारी-सी चीज आकर बैठ गयी। मुझे लगा बैठने दो, ध्यान करने की वजह से आस-पास के प्राणी आ जाते हैं। हो सकता है गिलहरी या गिरगीट (सरडा) आकर सर पर बैठ गया होगा। मेरी आंखें खुली थी और मैं किताब के पन्ने पलट रहा था।
करीब-करीब 15 मिनिट बाद मुझे लगा कि अब काफी समय हो गया है, सर पर जो भी प्राणी है अब तक तो उसे निकल जाना चाहिए। तब मैंने अपने सिर को थोड़ा-सा आगे की ओर झुका दिया, तभी अचानक मेरी पीठ पर से कोई कपास के जैसी मुलायम चीज नीचे सरकते हुये उतरी। फिर निचली पीठ पर बड़ी तीव्र संवेदना महसूस हुई।
मैंने तुरंत गर्दन को पीछे, दाहिनी ओर पलट कर देखा तो मेरे होशोहवास उड़ गये। मेरी नजर अब ब्राऊन कलर के उस नागराज पर थी और मेरे मेरुदंड से सटे नागराज की दो काली गोलाकार आंखे दाहिनी ओर नीचे चमक रही थीं। मेरी नजर उसकी आंखों पर थी। करीब डेढ़ इंच चौड़ा गोलाकार मुँह, वह मेरी ओर देखे और मैं उसकी ओर। फासला केवल एक फिट।
देखते ही मैं समझ गया कि मृत्यु सामने नागराज के रूप में खड़ी है। अब तो किसी समय मरना ही है, तैयार हो जाओ। असह्य मृत्यु पीड़ा में से गुज़रना पड़ेगा। उसे देखते-देखते कुछ ही सेकेंड में मुझे आत्मविश्वास हो गया कि नागराज केवल देखे जा रहे हैं और मुझे कुछ भी हानि नहीं पहुँचा रहे। तब मुझे लगा कि ये तो दुश्मन नहीं, मित्र हैं।
मैं लगातार कुछ देर तक देखते रहा पर नागराज में मुझे कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई दी। वे बिना फन निकाले शांति से मेरी ओर देखे जा रहे थे। मैं आश्वस्त हो गया कि ये अब कुछ नहीं करेंगे। मैं सामने पांच मिनिट देखते रहा। फिर मुझे लगा अब कुछ देर में वह अपने आप चले जायेंगे। फिर से गर्दन को घुमाकर मेरी दाहिनी भुजा के नीचे देखा तो वह नागराज मेरे मेरुदंड से सटा हुआ वैसे का वैसा ही था। फिर थोड़ी देर मैंने सामने देखा, और फिर से मुड़कर देखा तो वहां से जरा भी हिलने का नामोनिशान नहीं था।
इतनी देर इंतजार करने के बाद मैंने सोचा ये नागराज तो अपने आप नहीं जा रहे हैं अब मुझे ही यहां से सरक जाना चाहिए। कितना भी शांत हो पर है तो विषधर ही। मैं धीरे-धीरे सामने की ओर सरकने लगा, पांच-छै फिट आगे आने पर पीछे पलटकर देखा तो नागराज पेड़ के तने से सटे बैठे थे।
मैंने मेरे मित्र देवनारायण को धीरे से बताया, देखो वह नागराज जैसे ही मेरे मित्र को दिखाया, मित्र जोर से चिल्लाने लगा, शोर सुनकर वह नागराज वहां से निकल गया। मैंने वहां के किसान से पूछा तो कहने लगा, इस खेत में नाग कभी-कभार घूमते हुए दिखाई दिये हैं। मैं मन ही मन उस नागराज के प्रति अत्यंत मैत्रीभाव तथा जीवन-दान के लिए धन्यवाद देते हुये अपने घर की ओर प्रस्थान किया।
कुछ महीने बाद जब मैं धम्मगिरि, इगतपुरी शिविर के बाद पूज्य गुरुदेव से हॉल में मिला तब पूज्य गुरुदेव व पूजनीया गुरुमाता दोनों के सामने बैठ कर यह घटना सुनायी और पूछा की वह नागराज कौन थे, विषधारी होते हुये भी उन्होंने क्यों नहीं काटा?
तब पूज्य गुरुदेव ने मुझे कहा, बेटा मृत्यु से कभी घबराना नहीं। मैंने कहा, मैंने तो समता से मरने की तैयारी कर ली थी। फिर कहने लगे “साधक के शरीर से हमेशा मंगल मैत्री निकलती रहती है” इस वजह से यह आस-पास होते हैं तो नजदीक आ जाते हैं। मंगल मैत्री उन्हें अच्छी लगती है। इन्हें खूब मंगल मैत्री देनी चाहिए।
शहर के बाहर अकेले जंगल में जाना नहीं, आसपास होंगे तो नजदीक आ ही जायेंगे। पूज्य गुरुदेव एव पूज्य माताजी को त्रिबार वंदन करते हुए, उस नागराज को भी मन ही मन मंगल मैत्री दिया। निश्चित ही विपश्यना साधना के प्रभाव से मैं समता रख सका। इस कल्याणी विपश्यना साधना के प्रति समर्पित भाव तथा कृतज्ञता प्रकट करते हुए भविष्य में और गहराई से साधना करने का बल लेते हुये पूज्य गुरुदेव एवं पूज्य माताजी से विदाई ली।
इनके अतिरिक्त इस प्रेरणास्पद-घटना की बात मैंने और किसी को नहीं बताई थी, सिवाय मेरी प्रथम विपश्यना टीचर के। ऐसी मंगलदायिनी विपश्यना से सबका मंगल हो!
डी. कराडे (स. आचार्य), नागपुर
पुस्तक: पूज्य गुरुजी एवं माताजी के बारे में साधको के संस्मरण । विपश्यना विशोधन विन्यास ।।
भवतु सब्ब मगंलं !!