बुद्धानुयायी वह है जो बुद्ध, धर्म और संघ में शरण ग्रहण करता है।
चार तरह के बुद्धानुयायी होते हैं यथा
1. भय (जो खतरे के कारण बुद्धानुयायी बनते हैं।
2. लाभ (जो अपनी तुष्टि के लिए बुद्धानुयायी बनते हैं)
3. कुल (जो जन्मजात बुद्धानुयायी हैं)
4. श्रद्धा (जो श्रद्धा के कारण बुद्धानुयायी हैं)
बुद्धानुयायी को दो संवर्गों में बांटा जा सकता है यथा
वे जो इसी जीवन में मुक्त होना चाहते हैं।
वे जो इस जन्म में पारमी संग्रह कर रहे हैं।
(i) बुद्ध होने के लिए- सम्यक सम्मबुद्ध वे होते हैं जो मुक्ति का मार्ग खोज निकालते हैं, उस पर स्वयं चलकर अपने प्रयास से लक्ष्य की प्राप्ति करते हैं।
(ii) प्रत्येक बुद्ध (वे जो स्वयं मुक्त तो होते हैं, पर दूसरों को मुक्ति के मार्ग का उपदेश नहीं दे पाते।
(iii) अग्रश्रावक- (प्रधान शिष्य) जो श्रावक श्राविकाओं में अग्र होते हैं।
(iv) महाश्रावक- प्रमुख श्रावक ( जो मार्गदर्शन करते हैं)
(v) अर्हत- अर्हत, जिन्होंने अपने मनोविकारों को नष्ट कर डाला है।
बुद्ध या प्रत्येक बुद्ध आदि के व्रत के पूरा होने में तथा उसके लिए पारमी पूरा करने में जो समय लगता है उसकी अवधि भिन्न-भिन्न होती है
(i) वीर्याधिक बुद्ध के लिए- सोलह असंखेय्य और एक हजार कल्प
(ii) श्रद्धाधिक बुद्ध के लिए- आठ असंखय्य और एक हजार कल्प
(iii) ज्ञाधिक बुद्ध के लिए-चार असंखेय्य और एक हजार कल्प
1. प्रत्येक बुद्ध के लिए-दो असंखेय्य और एक लाख कल्प
2. अग्रश्रावक के लिए एक असंखेय्य और एक लाख कल्प
3. महाश्रावक के लिए एक लाख कल्प
अर्हत के लिए-एक सौ या एक हजार कल्प।
वीर्याधिक बुद्ध के लिए प्रधान कारक वीर्य(मेहनत) है।
श्रद्धाधिक बद्ध के लिए प्रधान कारक श्रद्धा है।
और प्रज्ञाधिक वीर्य के लिए प्रधान कारक प्रज्ञा है।
जब कोई बुद्ध बनता है तो उसमें बुद्ध होने के बीज का वपन हो जाता है, उस धर्म के बीज का वपन हो जाता है जिसको वह अपनी सामर्थ्य के अनुसार विकसित करेगा। हर बुद्ध से यह आशा की जाती है कि आर्य अष्टांगिक मार्ग पर चलकर बुद्ध या प्रत्येक बुद्ध या अग्रश्रावक के रूप में निर्वाण लक्ष्य की प्राप्ति करे।
वैसे व्यक्तियों के जो इसी जीवन में मुक्ति प्राप्त करना चाहते हैं, चार प्रकार हैं यथा
उग्घाटितञ्ज, विपञ्चितञ्जु, नेय्य और पदपरम ।
1. उग्घाटिञ्जु वह है, जो बुद्ध से व्यक्तिगत रूप से मिलता है और वह बुद्ध के संक्षिप्त उपदेश को सुनकर भी मार्ग और सत्य की प्राप्ति कर सकता है।
2. विपञ्चिचु वह है जो जब विस्तार से प्रवचन सुनता है तब मार्ग और फल की प्राप्ति करता है।
3. नेय्य वह है जो संक्षेप में या विस्तार में उपदेश सुनकर मार्ग या फल की प्राप्ति नहीं कर सकता बल्कि उसे इन्हें प्राप्त करने के लिए उपदेशों को दिनों, महीनों, वर्षों तक अनुशीलन करना पड़ता है तथा अभ्यास करना पड़ता है ताकि वह इन्हें प्राप्त कर सके।
इस संबंध में बोधिराजकुमार के प्रश्न के उत्तर में बुद्ध ने कहा- मैं निश्चित तौर पर यह कह नहीं सकता कि सत्य का पूरी तरह साक्षात्कार करने में कितना समय लगेगा। यह मानते हुए भी कि तुम संसार को त्याग कर संघ में प्रवेश कर गये-7 वर्ष भी लग सकते हैं, 6 वर्ष भी, 5 वर्ष भी, 4 वर्ष भी, 3 भी, 2 भी, या एक वर्ष भी लग सकता है; नहीं यह छः महीना भी हो सकता है, तीन महीना भी, 2 भी, या 1 भी। दूसरी ओर मैं यह भी नहीं कहता कि वह एक पक्ष में या एक सप्ताह में या एक दिन में, या एक दिन के कुछ क्षणों में अर्हत्व की प्राप्ति नहीं कर सकता। यह बहुत से कारकों पर निर्भर करता है।
4. पदपरम वह व्यक्ति है जो बुद्ध शासन काल में जन्म ग्रहण कर भी, बुद्ध के उपदेशों को सुनकर और बहुत ग्रन्थधुर तथा विपस्सनाधुर का बहुत अभ्यास कर भी न तो मार्ग और न फल को अपने जीवनकाल में प्राप्त कर सकता है। ऐसा व्यक्ति संसार से अपने जीवन काल में मुक्त नहीं हो सकता। अगर वह शमथ और विपश्यना का अभ्यास करते मर जाता है और मनुष्य लोक में या देवलोक में जन्म ग्रहण करता है तो वहां वह बुद्धशासन के रहते मार्ग और फल प्राप्त कर सकता है जो शासन बुद्ध के महापरिनिर्वाण से पांच हजार वर्षों तक रहेगा।
इससे एक परिणाम यह निकल कर आता है कि जो पारमी पूरा कर परिपक्व हो गये हैं वैसे ही चार प्रकार के व्यक्तियों का झुकाव गंभीरतापूर्वक साधना करने में होगा और वे ही साधना शिविर में बैठेंगे। हमें जरा भी संदेह नहीं है कि जो कड़ाई से और दृढ़ इच्छा के साथ आर्य अष्टांगिक मार्ग पर चलकर एक अच्छे आचार्य के निर्देशन में साधना करेंगे, वे या तो नेय्य हैं या पदपरम।
सयाजी ऊ बा खिन (जर्नल)