जो व्यक्ति सम्यक संबुद्ध बना, अरहंत बना, वीतराग, वीतद्वेष, वीतमोह, भवमुक्त बना । उसके जीवन की चार महत्त्वपूर्ण घटनाएं -वह बोधिसत्त्व के रूप में राजकुमार सिद्धार्थ गौतम के नाम से शाक्यों के घर में जन्मा। राजकुमार है, पर किसी राजमहल में नहीं जन्मा। जन्मा किसी पेड़ के तले, खुली प्रकृति में, खुले आसमान के तले और जब सत्य की खोज में निकल पड़ा, धर्म की खोज में निकल पड़ा तो भले पांच-छ: वर्षों तक अंधेरी गुफाओं में, वनों में भिन्न-भिन्न प्रकार की तपस्याएं करता रहा, पर जब सम्यक संबोधि प्राप्त हुई तो फिर किसी पेड़ के तले, खुली प्रकृति में, खुले आसमान के नीचे।
सम्यक संबोधि प्राप्त हुई तो हृदय से करुणा की गंगा बह पड़ी। देखता है समाज के लोग धर्म के नाम पर किस प्रकार कर्मकांडों में उलझे हुए हैं। किस प्रकार सांप्रदायिक बाड़ेबंदी में बँधे हैं। किस प्रकार भिन्न-भिन्न दार्शनिक मान्यताओं के जंजाल में उलझे हुए हैं। किसी-न-किसी प्रकार से देहमंडन या देहदंडन में लगे हैं। धर्म से वंचित हो गये हैं । अतः अत्यंत करुणा के साथ पहली बार जब शुद्ध धर्म का प्रकाशन करते हुए धर्मचक्र को प्रवर्तमान किया तो फिर खुली प्रकृति में, खुले आसमान के नीचे, पेड़ के तले धर्मचक्र का प्रवर्तन किया और फिर अस्सी वर्ष की पकी हुई अवस्था में जब प्राण छोड़े तो फिर खुली प्रकृति में, खुले आसमान के तले, किसी वृक्ष के नीचे अपने प्राण छोड़े। जीवन की ये चारों महत्त्वपूर्ण घटनाएं खुली प्रकृति में हुई। तो इस व्यक्ति ने प्रकृति का खूब अध्ययन किया, बाहर-बाहर के कुदरती कानूनों का खूब अध्ययन किया । बुद्धि के स्तर पर उन्हें खूब समझा। लेकिन बुद्धि के स्तर पर सच्चाई को कोई कितना ही समझ ले, महज इससे कोई सम्यक संबुद्ध नहीं बन सकता । इसके लिए तो कुदरत के कानून को, विश्व के विधान को,प्रकृति के नियमों को अपने भीतर अनुभूति द्वारा जान लेता है और जानते हुए अपने सारे विकारों से छुटकारा पा लेता है तो सम्यक संबुद्ध बनता है।
कुदरत के कानून को जान गया, निसर्ग के नियमों को जान गया माने शुद्ध धर्म को जान गया। धर्म क्या है ? ऋत ही तो धर्म है, सत्य ही तो धर्म है, निसर्ग के नियम ही तो धर्म हैं। खूब जान गया। अपनी प्रज्ञा से भीतर और बाहर भी देखता है कि बड़ी विचित्र बात है, कुछ न कुछ हो रहा है। प्रतिक्षण भीतर भी बाहर भी, कुछ न कुछ हो रहा है। कुछ बनता है, बिगड़ता है। फिर बनता है, फिर बिगड़ता है। बनता है, बिगड़ता है। बिगड़ता है, बनता है। कुछ हुए ही जा रहा है। उन दिनों की भाषा में इसे कहा -‘भव’ यानी भावित हो रहा है, कुछ हुए जा रहा है। यह सच्चाई अनुभूतियों के स्तर पर समझ में आयी, प्रज्ञा के स्तर पर समझ में आयी। फिर देखता है, जो यह हो रहा है, चाहे सजीव हो या निर्जीव हो, सब में हो रहा है|
और हुए ही जा रहा है। अरे, यही तो जीवन-धारा है। यही तो । संसरण है, भव संसरण है। बनता है, बिगड़ता है। फिर बनता है, फिर बिगड़ता है। जन्मता है, मरता है। फिर जन्म लेता है, फिर मरता है। कैसा प्रवाह चल रहा है? फिर यह भी देखता है कि जो कुछ बनता है, बिना कारण के नहीं। जो कुछ हो रहा है उसके पीछे कोई न कोई कारण है। एक कारण है या अनेक कारण एकत्र हो गये और उसका यह परिणाम आया। कारण-परिणाम, कारण-परिणाम, बिना कारण के कुछ नहीं हो रहा। फिर देखता है, कारण से जो परिणाम आया, वह परिणाम अगले किसी परिणाम के लिए कारण बन गया। तो कारण-परिणाम, परिणाम-कारण; कारण-परिणाम । बीज-फल, फल-बीज;बीज-फल,फल-बीज । ओह! तो इस प्रकार यह भव-संसरण हो रहा है। खूब समझ में आया। गहराइयों से इसे भी जाना कि कारण क्या हैं!
हर हरकत के मूल में, कारण सच्चा देख।
बिन कारण संसार में, पत्ता हिले न एक ॥
कोई न कोई कारण, कोई न कोई कारण । फल आया तो ऊपर-ऊपर से लगता है, यह जो फूल आया था ना! उसमें से फल आया। यह जो डाल है ना! इसमें से फल आया। यह जो पेड़ है ना! इसमें से फल आया। पर मूल क्या है? ओह, मूल तो वह बीज है जो हमें दिखाई नहीं देता। गर्भ में जो बीज है उसमें से यह फल आया। बीज है तो फल आया। फल है तो उसके साथ बीज आया। बीज है तो फिर फल आया। ओह, इस प्रकार यह सारा काम चल रहा है। इस प्रकार यह भवचक्र चल रहा है। एक बात और समझ में आयी, किसी भी विपश्यी साधक को समझ में आयेगी। ये सारी सच्चाइयां अनुभूति पर उतरेंगी तब खूब समझ में आयेंगी । बाहर की दुनिया में भी, बाहर के वनस्पति जगत में भी जैसा बीज, वैसा ही फल भीतर की दुनिया में भी जैसा कर्म का बीज, ठीक वैसा ही फल। कुदरत के बँधे-बँधाये नियम, निसर्ग के बँधे-बँधाये नियम, इनमें कोई फेर-बदल नहीं होता। बीज कैसा है, फल वैसा ही आयेगा।
एक जैसी धरती पर हमने दो बीज बोये, एक गन्ने का बीज, एक नीम का बीज । वही धरती है। उन्हें वही पानी मिलता है। वही हवा है, वही रोशनी है। वही उर्वरक है, वही ऊर्जा है। वही खाद है और वे दोनों बीज फूटकर अंकुरित हुए, बाहर निकले, पौधे के रूप में बढ़े। अब क्या हो गया? इस गन्ने के पौधे को क्या हो गया? इसका रेशा-रेशा मीठा! उस नीम के पौधे को क्या हो गया? उसका रेशा-रेशा खारा! क्यों हुआ? यह प्रकृति,यह निसर्ग, यह कुदरत या यों कहें, यह परमात्मा, यह अल्लाताला, इसने एक पर तो बड़ी कृपा कर दी और दूसरे पर बड़ा कोप कर दिया? अरे, नहीं भाई, नहीं! धरम समझ में आने लगेगा तो खूब समझेगा कि कोई कृपा करने वाला नहीं है। कोई कोप करने वाला नहीं है। हम ही अपने आप पर कृपा करते हैं, हम ही अपने आप पर कोप करते हैं । होश संभालें!
बीज कै साथ प्रकृति तो यही काम करेगी।उस बीज कागुण, धर्म, स्वभाव कैसा है, उसे प्रकट कर देगी। गन्ने के बीज का गुण, धर्म, स्वभाव मिठास ही मिठास से भरा हुआ, इस पौधे के रेशे-रेशे में । मिठास आ गया। नीम के बीज में गुण, धर्म, स्वभाव खारेपन से भरा हुआ; रेशे-रेशे में खारापन आ गया।
उस नीम के पेड़ के पास कोई आये और बड़ी श्रद्धा के साथ उसे तीन बार नमस्कार करे ।धूप जलाये, दीप जलाये, नैवेद्य चढ़ाये, पुष्प चढ़ाये और बड़ी श्रद्धा के साथ उसकी एक सौ आठ फेरी दे और फिर हाथ जोड़ कर, डबडबाई आंखों से, कातर कंठसे प्रार्थना करे -ऐ नीम देवता, तू मुझे मीठे-मीठे आम देना, तू मुझे मीठे-मीठे आम देना । सारी जिंदगी रोता रह जायेगा, वह नीम का पेड़ मीठे आम देने वाला नहीं है। मुझे मीठे आम की बहुत ख्वाहिश है तो बीज बोते समय सजग रहना था। नीम का बीज क्यों बोया? मीठे आम का बीज बोया होता। मैं मीठे आम का बीज बो दूं, फिर किसी के सामने डबडबाई आंखों से गिड़गिड़ाने की जरूरत नहीं। मीठा आम ही उपजने वाला है, उसमें से नीम निकल नहीं सकता।
“फल वैसा ही पाइये, जैसा बोये बीज।”
यह कुदरत का कानून है जो सब पर लागू होता है। नीम का बीज कोई हिंदू बोये कि मुसलमान, कोई बौद्ध बोये कि जैन, कोई ईसाई बोये कि ब्राह्मण कि शूद्र, कोई फर्क नहीं पड़ता। उस नीम के बीज में से खारा नीम ही निकलने वाला है। इसी प्रकार गन्ने का बीज कोई बोये, किसी जाति का, किसी वर्ण का, किसी गोत्र का, किसी देश का, किसी बोली-भाषा का, किसी रंग-रूप का, कोई व्यक्ति बोये । गन्ने काबीज बोया है तो फल मीठा ही आने वाला है। यह धर्म है, यह कुदरत का कानून है, यह विश्व का विधान है जो सब पर लागू होता है। इसमें कोई फेर-बदल कर ही नहीं सकता।
बीज तो बोऊं नीम का और मुझ पर किसी की कृपा हो जाय, मुझ पर तो कृपा हो ही जाय, मुझे तो मीठे आम मिलने ही लगें। नहीं होता ना भाई! कोई करके देख ले। यह सारी सच्चाई देख कर के उस महापुरुष ने कहा कि अगर प्रार्थना करने से अपनी इच्छाएं पूरी होतीं तो संसार में एक व्यक्ति ऐसा नहीं रहता, जिसकी कोई इच्छापूर्ति न हो। सब की इच्छाएं पूरी हो जाती । प्रार्थना तो सभी करते हैं। नहीं होता ना! तो समझें भाई, कहां उलझ गये? अपना कर्मसुधार ने में लगें। जैसा मेरा कर्म वैसा फल ।मैं दुष्कर्म भी करता जाऊं और इस आशा में बैठा रहूं कि कोई अदृश्य शक्ति मुझ पर तो कृपा कर देगी। हजार दुष्कर्म करूं, मुझको तो अच्छे-अच्छे मीठे फलदे ही देगी। अरे, सारा जीवन धोखे में बीत जायगा।
धर्म का शुद्ध स्वरूप जब समाज से नष्ट होता है तो इन्हीं कुछ कारणों से होता है कि उसके शुद्ध स्वरूप को भूल जाते हैं। उसके सार्वजनीन स्वरूप को भूल जाते हैं। शील का पालन करे । मन को अपने वश में करे । प्रज्ञा जगा करके चित्त को निर्मल कर ले तो सत्कर्म ही सत्कर्म हो गये । ऐसा व्यक्ति दुष्कर्म कर ही नहीं सकता। तो अच्छे फल ही आयेंगे। शील का पालन नहीं करे,न मन को वश में करे,न मन को निर्मल करे।मन को मैला ही मैला रखे तो जो कर्म करेगा,जो बीज बोयेगा, दुष्कर्म ही होगा। दुष्कर्म ही होगा तो दुष्फल ही आयेगा। यह बात जो आदमी जितनी जल्दी समझ लेता है वह शुद्ध धर्म को समझ गया। अब सजग हो जायगा कि मैं कोई दुष्कर्म न करलूं। मैं कोई खारा बीज न बो लूं। नहीं तो जो फल आने वाला है वह बड़ा खारा आने वाला है।
मुझे मीठे फल चाहिए तो बीज बोते समय सजग रहूं, कर्म करते समय सतर्क रहूं। मुझसे कोई ऐसा कर्म हो नहीं जाय जो मेरे लिए हानिकारक हो, जो मेरे लिए कष्टदायक हो। खूब सजग रहना सीख जायेगा। वह अपने आपको हिंदू कहे, बौद्ध कहे,जैन कहे या ईसाई कहे। अपने आपको किसी भी नाम से पुकारे,अच्छा आदमी बन गया, धार्मिक व्यक्ति बन गया। दुष्कर्म नहीं करता, सत्कर्म करता है। अपना भी कल्याण करता है, औरों के कल्याण में सहायक हो जाता है। सारे वातावरण को धर्म की तरंगों से भर देता है। धर्म का यह शुद्ध रूप जो सार्वजनीन है, सार्वदेशिक है, सार्वकालिक है, उसे समझते हुए उसे धारण करना शुरू कर दें। देखें, जीवन बदलने लगा। एक-एक व्यक्ति धारण करने लगे तो एक-एक व्यक्ति स्वस्थ होने लगा, सुखी होने लगा। एक –एक व्यक्ति स्वस्थ होने लगा, सुखी होने लगा तो सारा समाज स्वस्थ होने लगा, सुखी होने लगा। जितनी जल्दी इस सच्चाई को समझ लें, स्वीकार कर लें और धारण करना शुरू कर दें तो जीवन में मीठे फल मिलने लगे । नहीं समझते तो भटकते हैं।
भगवान के जीवनकाल की एक घटना। एक भाई उनके पास आया। उसके पिता का देहांत हो गया था। आया भगवान के पास और कहने लगा कि महाराज, ये छोटे-छोटे पंडे-पुजारी यह कर्मकांड करवा देते हैं, वह कर्मकांड करवा देते हैं और उससे मुक्ति हो जाती है, उससे सद्गति हो जाती है। आप तो महाराज, सर्वशक्तिमान हैं। आप तो महाकारुणिक हैं । आप कुछ ऐसा कीजिए ना कि ये संसार के सारे लोग जो मरे उसकी सद्गति ही हो, उसकी सद्गति ही हो। आप कर सकते हैं महाराज!
भगवान ने कहा अरे भाई, तू कुदरत के कानून को समझ । दूसरा कोई क्या कर सकता है? हर व्यक्ति स्वयं अपने कर्मों का करने वाला है और हर व्यक्ति स्वयं अपने कर्मों का फल भोगने वाला है। नहीं समझा तो उन्होंने कहा, अच्छा, दो मिट्टी की हंडिया ले आ। बड़ा खुश हुआ। भगवान कोई कर्मकांड कराएंगे। दो मिट्टी की हंडिया ले आया। उन्होंने कहा, एक में घी’ भरले । भर लिया। दूसरे में ‘कंकर-पत्थर भर ले। भर लिये। अब इनका मुँह सील कर दे । खूब सील कर दिया। अब बगल में यह तालाब है ना, इसमें छोड़। छोड़ते ही दोनों के दोनों घड़े अपने वजन से पेंदे में जा बैठे। अब भगवान कहते हैं कि एक मोटा सा डंडा ला और मार इनको,तोड़। बड़ा खुश हुआ कि भगवान कोई बहुत उत्तम कर्मकांड करवा रहे हैं। अब क्या कहना! मेरे पिता की सद्गति ही नहीं होगी, वह तो सदा के लिए स्वर्ग में स्थापित हो जायेंगे। आज की भाषा में कहें तो स्वर्ग की एंट्री वीसा ही नहीं मिलेगी, परमानेंट स्टे मिल जायगा, ग्रीन कार्ड मिल जायगा। बड़ा खुश हो कर उन हंडियों पर डंडे की चोट की। दोनों फूटगयीं। जिसमें घी था वह तैरते-तैरते ऊपर आ गया। जिसमें कंकर-पत्थर थे, वे पेंदे में रह गये । तो भगवान ने कहा, देख भाई, इतना काम तो हमने कर दिया। अब तू अपने पंडों को, पुजारियों को, सबको इकट्ठा कर । वे सबके सब यहां प्रार्थना करें और तू भी कर -ऐ कंकर-पत्थर तुम ऊपर आ जाओ, तुम ऊपर आ जाओ। ऐ घी, तू नीचे चला जा, तू नीचे चला जा।
महाराज! आप तो हमारा मजाक करने लगे। कभी यह भी हो सकता है? यह कुदरत का कानून है महाराज, कंकर-पत्थर पानी से भारी होते हैं । वे तो हमेशा नीचे ही जाएंगे, ऊपर आ नहीं सकते,पानी पर तैर नहीं सकते और घी पानी से हल्का होता है। वह तो ऊपर ही तैरेगा । वह नीचे जा नहीं सकता। यह प्रकृति का नियम है महाराज!
अरे, तू प्रकृति के नियम को इतना समझने वाला , तेरी समझ में यह बात नहीं आती कि तेरा बाप या और कोई भी व्यक्ति सारे जीवन भर कंकर-पत्थर वाले काम करता रहेगा तो नीचे ही जायगा ना रे! उसको कौन ऊपर उठा सकता है? और यदि सारे जीवन भर हल्के-फुल्के घी जैसे काम करेगा, अच्छे काम करेगा तो ऊपर ही जायगा ना? सद्गति होगी ही।
कौन उसकी टांग खींच सकता है ? कर्म
और उसके फल के बीच में कोई दूसरा व्यवधान पैदा नहीं कर सकता, बाधा नहीं पैदा कर सकता।जैसा कर्म वैसा फल,जैसा कर्म वैसा फल।
जब हमें कोई ऐसा सुझाव देता है या हम अपनी अज्ञान अवस्था में ऐसी बात अपने मन में धारण कर लेते हैं कि भाई, अमुक कर्मकांड करने से मेरे सारे पाप धुल जायेंगे। अमुक दर्शनिक मान्यता मान लेने से मेरे सारे पाप धुल जायेंगे। कोई पर्व, उत्सव मना लेने से, कोई व्रत, उपवास कर लेने से मेरे सारे पाप धुल जायेंगे। तब ऐसा आदमी अपने कर्मों को सुधारने का काम ही क्यों करेगा? शुद्ध धर्म धारण करने का काम क्यों करेगा?
ये जो गलत रास्ते धर्म के विरुद्ध ले जाने वाले रास्ते हैं, जिस दिन यह समझ में आ जायगा कि मैं दुष्कर्म करूं तो मुझे दुष्फल से बचाने वाला कोई नहीं है, उस दिन वह दुष्कर्म से अपने आपको बचायेगा। हर कर्म करते हुए सजग रहेगा, कैसा बीज बो रहा हूं? जिस दिन यह समझ में आ जायगा कि मैं सत्कर्म करूं, तो सत्फल प्राप्त करने में कोई बाधा पैदा करने वाला नहीं । सत्फल आयेगा ही। तब खूब सजग रहेगा कि बीज कैसा बो रहा हूं! कैसा बीज बो रहा हूं! प्रतिक्षण सजग रहेगा। बीज बोते समय सजग रहेगा तो फल की चिंता नहीं। बीज ठीक बो रहा है, फल ठीक आ रहे हैं। कर्म ठीक कर रहा है, तो फल ठीक ही आ रहे हैं।
धर्म की इतनी सीधी-सीधी बात, इतनी सरल-सरल बात। अरे, कहां उलझा दिया हमने? शुद्ध धर्म लोगों के समझ में आये । सत्कर्मों में लगें, दुष्कर्मों से बचें। अरे, अपना भी मंगल साध लेंगे, औरों के मंगल में भी सहायक हो जाएंगे।
शुद्ध धर्म जो-जो धारण करे। इस जाति का हो या उस जाति का हो। इस वर्ण का हो या उस वर्ण का हो, कुछ फर्क नहीं पड़ता। जो-जो धारण करे उसी का मंगल। उसी का कल्याण । उसी की स्वस्ति, उसी की मुक्ति, मुक्ति ।
सत्यनारायण गोयन्का
(जी-टीवी पर क्रमशः चौवालीस क ड़ियों में प्रसारित पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों
की सत्तरहवीं कड़ी)
नवंबर 2001 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित