विपश्यना के प्रचार-प्रसार के लिए धर्म-केंद्रों का विकास एक नये चरण का संकेत है। इसकी सार्थकता को समझना बहुत आवश्यक है।
विपश्यना केंद्र, सदस्यों के मौज-मस्ती के लिए बनाये गये क्लब नहीं हैं। न ही वे सांप्रदायिक समारोह मनाने हेतु मंदिर है और न ही सामाजिक गतिविधियों के लिए सार्वजनीन स्थल। ये ऐसे आश्रय-स्थल भी नहीं है जहां कोई व्यक्ति अपना जीवन बिताने के लिए रहे।
ये केंद्र ऐसे विद्यालय हैं जहां केवल एक ही विषय सिखाया जाता है, वह है धर्म । अर्थात जीवन जीने की कला। यहां जो भी व्यक्ति आते हैं, चाहे ध्यान करने के लिए आयें या सेवा देने के लिए, वे सत्य-धर्म (सद्धर्म) की शिक्षा ग्रहण करने के लिए ही आते हैं। अतः उन्हें चाहिए कि वे ग्रहणशील भाव बनाये रखें। अपने विचार । दूसरों पर थोपने की चेष्टा न करें, बल्कि प्रदत्त धर्म को समझते हुए उसे धारण करें। यह सुनिश्चित करने के लिए कि धर्म को उसकी शुद्धता एवं सामर्थ्य के साथ प्रदान किया जा रहा है, केंद्रों पर सख्त अनुशासन का पालन किया जाता है। केंद्रों पर जितनी अधिक सावधानी से इसका पालन होगा, उतने ही ये अधिक मजबूत और कल्याणकारी। बनेंगे। यहां किसी प्रकार की अन्य सामाजिक गतिविधियों की अनुमति नहीं है। ऐसा इसलिए नहीं कि इनमें कुछ गलत है, बल्कि केवल इसलिए कि वे विपश्यना केंद्रों के लिए उपयुक्त नहीं है। इस स्थान पर केवल विपश्यना की सक्रिय विद्या ही सिखायी जाती है। यहां का अनुशासन इन केंद्रों के अनूठे प्रयोजन को शुद्ध रखने का एक तरीका है। अतः इनको सावधानीपूर्वक सुरक्षित रखना चाहिए।
शील इन विपश्यना केंद्रों की नींव है। शील पालन विपश्यना शिविर का पहला सोपान है। इसके बिना साधक का ध्यान कमजोर होगा। यह उनके लिए भी उतना ही आवश्यक है जो केंद्रों पर धर्मसेवा देते हैं। वे भी पांचों शीलों का खूब सावधानी से पालन करें। इन केंद्रों पर धर्म का शासन प्रतिष्ठित रहना आवश्यक है। इसलिए धर्मभूमि पर कोई हत्या न हो, चोरी न हो, काम-भोग न हो, झूठ बोलना – इसके अंतर्गत निंदा, चुगली, कठोर, कड़वी एवं गंदी अनावश्यक बातें न हों तथा नशीले पदार्थों का सेवन न हो। यहां धूम्रपान पूर्णतया निषिद्ध है। इन पांच शीलों का प्रतिपालन करने से शांत और गंभीर वातावरण का निर्माण होगा, जो चित्तशुद्धि के कार्य में सहायक होगा।
शील की मजबूत नींव पर ही चित्तशुद्धि का अभ्यास आगे बढ़ सकता है, यह महत्त्वपूर्ण तथ्य सदा सर्वदा ध्यान में रहे। जो भी यहां सेवा देने आते हैं, भले कुछ घंटों के लिए ही क्यों न हो, वे यहां ध्यान का अभ्यास करने से बिल्कुल न चूके। ऐसा करने से यहां का धर्ममय वातावरण पुष्ट होगा तथा साधकों के लिए भी प्रेरणादायी होगा।
ध्यान तथा बुद्ध की शिक्षा का अभ्यास सिखाने के लिए अब तक भारत तथा विश्व भर में 165 विपश्यना केंद्र स्थापित हो गये हैं।
और नए-नए खुलते जा रहे हैं। ये विशिष्ट प्रकार से बुद्ध की शिक्षा तथा विपश्यना का प्रसार करने के लिए समर्पित स्थान हैं। अतः इन केंद्रों को सदा-सर्वदा इसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए सुरक्षित रखना होगा।
यहां शुद्ध समाधि का अभ्यास कराया जाता है जिससे कि साधक की प्रज्ञा जागे और मानस की गहराइयों तक विकारों की जड़े निकाल कर उसे शुद्ध कर सके और सभी अधार्मिक प्रवृत्तियां धार्मिक हो जायें।
किसी भी केंद्र में जाति, वर्ण, गोत्र अथवा संप्रदाय तथा धनी, निर्धन, अनपढ़, विद्वान, उच्च सरकारी अधिकारी अथवा निम्न श्रेणी के कर्मचारी, देशी या विदेशी आदि का रंचमात्र भी भेदभाव नहीं होता। सभी मनुष्य हैं अतः सबको अपना आचरण सुधार कर सुख का जीवन जीना है। अपने तथा समाज के कल्याण का जीवन जीना है। भगवान की शिक्षा में मनुष्य को मनुष्य ही माना जाता है। उनमें भेदभाव कैसा! हर एक को अपने लिए भी, तथा समाज के लिए भी, कल्याणकारी बनना है।
सभी केंद्रों के लिए एक और महत्त्वपूर्ण नियम है कि विपश्यना केंद्र शुद्ध धर्म के स्थल है जहां भगवान के आदेश को ध्यान में रखते हुए ये नियम बनाये गये हैं ताकि धर्म की शिक्षा को कोई कभी व्यापार न बना ले। भगवान के ये शब्द — धम्मेन वाणिज्जं न चरे, न करेय्याति अत्थो।
(उदान-अट्ठकथाः खु० नि० अ० दे०:०.२७२) –
अर्थोपार्जन के लिए धर्म के नाम पर व्यापार नहीं करना चाहिए। अतः हर धर्माचार्य और धर्मकेंद्रों के ट्रस्टियों को ध्यान में रखना है कि उनमें से कोई भी पारिश्रमिक बिल्कुल नहीं ले । धर्म को व्यापार या व्यवसाय की सामग्री बना कर उसे बेचा नहीं जाय। अर्थात इसका व्यापार न करने लग जायँ। किसी भी हालत में, किसी भी साधक से धर्म की शिक्षा का, उनके रहने-सहने और भोजन इत्यादि का कोई शुल्क नहीं लिया जाय। शिविर समापन पर कोई इससे लाभान्वित होकर यह चेतना जगाये कि ऐसा शुद्ध धर्म और सार्वजनीन धर्म औरों को भी मिलना चाहिए और इसलिए वह बिना किसी दबाव के शुद्ध हृदय से, स्वेच्छापूर्ण दान दे तो ही ऐसा दान स्वीकार किया जाय। विपश्यना केंद्रों में केवल विपश्यी साधकों का ही दान लिया जाय। अन्य किसी का नहीं।
भगवान बुद्ध के समय जब भगवान ने और उनके शिष्य अरहंतों ने स्थान-स्थान पर धर्म सिखाया तब किसी भी व्यक्ति से इसका कोई शुल्क नहीं लिया गया। भगवान के 500 वर्ष बाद सम्राट अशोक के समय जब भारत भर के उसके अपने साम्राज्य में ही नहीं, बल्कि पड़ोस के देशों में विपश्यना के धर्माचार्य भेज कर लोगों के कल्याण हेतु धर्म सिखवाया तब भी धर्म को व्यापारिक सामग्री बना कर व्यवसाय नहीं होने दिया। आज 2600 वर्षों बाद भी उन नियमों का पालन किया जा रहा है और भविष्य में भी इसका पालन करते हुए साधना सिखाने का कोई शुल्क नहीं लिया जायगा । इस शुद्ध नियमावली के अनुसार सुरक्षित रखा गया यह सत्यधर्म (सद्धर्म) 41 वर्ष पूर्व भारत आया और सारे विश्व में फैल रहा है और भारत के अथवा विश्व भर के सभी केंद्रों में भगवान के इस पावन आदेश का दृढ़तापूर्वक पालन किया जा रहा है। भविष्य में इस नियम का पालन किया जाता रहेगा।