पाप के गहरे संस्कार जन्म जन्मांतरों तक हमारे शत्रु की तरह साथ लगे रहते हैं, और दुखद स्थितियां पैदा करते रहते हैं।
इसी प्रकार गहरे पूण्य संस्कार हमारे मित्र की तरह जन्म जन्मांतरों तक चित्तधारा के साथ लगे रहते हैं और हमारी सहायता करते हैं, सुखद फल देते हैं। संकट में हमारी रक्षा करते हैं।
वन में, रण में, शत्रुओ में, जल या अग्नि के बीच में, समुद्र में या पर्वत शिखर पर अथवा सोये हुए असावधान रहते हुए अथवा विषम परिस्थिति में पड़े हुए व्यक्ति की पूर्व जन्म के पूण्य रक्षा करते हैं।

संस्कारो को जीवन की चित्तधारा अपने साथ लिये चलती है। ये कर्म संस्कार कोई ठोस पदार्थ नही है।कर्म संस्कार तरंगो के रूप में चित्तधारा की तरंगो से सम्मिश्रित हो जातें हैं और सम्पूर्ण चित्तधारा को प्रभावित करते रहतें हैं।शरीर को प्रभावित करते रहते हैं।
शरीर और चित्त की मिली-जुली जीवनधारा को प्रभावित करते रहते हैं।
अच्छे-बुरे कर्म संस्कार चित्त का अच्छा या बुरा स्वभाव बनाते हैं।

जब जीवन का अवसान(death) होता है तब शरीर चित्त की धारा के साथ चलने में असमर्थ हो जाता है तो दोनों का अलगाव(separation) होता है। इसी को मृत्यु कहते हैं।

शरीर से अलग हुई चित्तधारा किसी अन्य शरीर से तत्काल जुड़कर प्रवाहमान होने लगती है। इसी को पुनर्जन्म कहते हैं।

प्रतिक्षण की बैलेंस शीट तैयार रहती है।इस जीवन के अंतिम क्षण के समय चित्तधारा के पाप-पूण्य की जो बैलेंस शीट है, अगले जीवन के प्रथम क्षण में इसी बैलेंसशीट के साथ चित्तधारा आगे बढ़ती है।
शरीर की चयुति हो गयी, किन्तु चित्तधारा चलती रही।
नए शरीर के साथ जुड़ते ही तत्काल चल पड़ी। बीच में एक क्षण का भी गैप नही होता।

यों जीवनधारा एक से दूसरे जन्म मे चलती रहती है।
वस्तुतः संस्कार है तो जीवनधारा है।
चित्त सारे संस्कारो से मुक्त हो जाए तो नया जीवन ही न हो सके।जन्म मरण के चक्कर से छुटकारा हो जाए। पर संस्कार कायम है इसलिये एक जन्म के बाद दूसरा जन्म होता है।



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