विपश्यना शिविर – प्रवचनों में प्रयुक्त पालि-पद

“नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स!”
– नमस्कार है उन अर्हत सम्यक सम्बुद्ध को!
“ये च बुद्धा अतीता च, ये च बुद्धा अनागता।
पच्चुप्पना च ये बुद्धा, अहं वन्दामि सब्बदा ॥”
– जितने भी बुद्ध हुए हैं अतीत काल में, जितने भी बुद्ध होंगे आने वाले काल में, जितने भी बुद्ध हैं वर्तमान काल में, उन सबकी मैं सदा वंदना करता हूँ।
ये च धम्मा अतीता च, ये च धम्मा अनागता।
पच्चुप्पना च ये धम्मा, अहं वन्दामि सब्बदा॥
– जो भी लोकोत्तर धर्म अतीत काल के हैं, जो भी लोकोत्तर धर्म आने वाले काल के हैं, जो भी लोकोत्तर धर्म वर्तमान काल में हैं, उन सबकी मैं सदा वंदना करता हूँ।
ये च सङ्घा अतीता च, ये च सङ्घा अनागता।
पच्चुप्पन्ना च ये सङ्घा, अहं वन्दामि सब्बदा ॥
– जो भी आर्य-संघ अतीत काल में हुए, जो भी आर्य-संघ आने वाले काल में होंगे, जो भी आर्य-संघ वर्तमान काल के हैं, उन सबकी मैं सदा वंदना करता हूँ।
🌹बुद्ध-वंदना🌹
इतिपि सो भगवा, अरहं, सम्मासम्बुद्धो, विज्जाचरणसम्पन्नो, सुगतो लोकविदू अनुत्तरो, पुरिसदम्मसारथी, सत्था देवमनुस्सानं, बुद्धो भगवा’ ति।
– सचमुच! ऐसे ही तो हैं भगवान! वे अरिहंत हैं! सम्यक सम्बुद्ध हैं! विद्या तथा आचरण सम्पन्न हैं! उत्तम गति प्राप्त हैं! समस्त लोकों के जानकार हैं! सर्वश्रेष्ठ हैं! (पथ-भ्रष्ट घोड़ों की तरह) भटके हुए लोगों को सही मार्ग पर ले आने वाले कुशल सारथी हैं! देवताओं और मनुष्यों के शास्ता हैं , आचार्य हैं। ऐसे हैं भगवान बुद्ध!
🌹 धर्म वंदना 🌹
“स्वास्खातो भगवता धम्मो सन्दिट्ठिको, अकालिको, एहिपस्सिको, ओपनेय्यिको, पच्चत्तं वेदितब्बो विञ्ञूही’ति।”
– भगवान द्वारा भली प्रकार कहा गया है। यह धर्म! स्वयं देखने योग्य है यह धर्म! तत्काल फलदायी है यह धर्म! आओ! देखो इस धर्म को! निर्वाण तक ले जानेवाला है यह धर्म प्रत्येक समझदार द्वारा साक्षात कर सकने योग्य है यह धर्म!
🌹 संघ वंदना 🌹
“सुपटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, उजुपटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, न्यायपटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, सामीचिपटिपनो भगवतो सावकसङ्घो, यदिदं चत्तारि पुरिसयुगानि अट्ठपुरिसपुग्गला एस भगवतो सावकसङ्घो, आहुनेय्यो, पाहुनेय्यो, दक्खिणेय्यो, अञ्जलिकरणीयो, अनुत्तरं पुञखेत्तं लोकस्सा’ति ।”
– अच्छे मार्ग पर चलने वाला है भगवान का श्रावक-संघ! सीधे मार्ग पर चलने वाला है भगवान का श्रावक-संघ! सम्यक-मार्ग पर चलने वाला है भगवान का श्रावक-संघ! उचित मार्ग पर चलने वाला है भगवान का श्रावक-संघ! यह जो मार्ग-फल प्राप्त आर्य व्यक्तियों के चार जोड़े हैं, यानी आठ पुरुष-पुद्गल हैं यही भगवान का श्रावक संघ है! यही संघ आह्वान करने योग्य है! आतिथ्य-योग्य है! दक्षिणा-योग्य है! अञ्जलि-बद्ध प्रणाम करने योग्य है! यही श्रेष्ठतम पुण्य क्षेत्र है लोगों के लिए।
“इमाय धम्मानुधम्मपटिपत्तिया, बुद्धं पूजेमि! धर्म पूजेमि! सङ्घं पूजेमि!”
– सद्धर्म के इस मार्ग पर आरूढ़ होकर [मैं] बुद्ध की पूजा करता हूँ। धर्म की पूजा करता हूँ। संघ की पूजा करता हूँ।
“अनेकजातिसंसार, सन्धाविस्सं अनिब्बिसं।
गहकारकं गवेसन्तो, दुक्खा जाति पुनप्पुनं ॥”
– अनेक जन्मों तक बिना रुके संसार में, दौड़ता रहा। इस कायारूपी घर बनाने वाले की खोज करते हुए पुनः पुनः दुःखमय जन्म में पड़ता रहा।
“गहकारक! दिट्ठोसि, पुन गेहं न काहसि ।
सब्बा ते फासुका भग्गा, गहकूटं विसङ्खितं ।
विसंखारगतं चित्तं, तण्हानं खयमज्झगा॥”
– गृहकारक । अब तुझे देख लिया है! अब तू पुनः घर नहीं बना सकेगा। तेरी सारी कड़ियाँ भग्न हो गयी हैं। घर का शिखर भी विशृंखलित हो गया है। संस्कार रहित चित्त में तृष्णा का समूल नाश हो गया है।
“सब्बपापस्स अकरणं, कुसलस्स उपसम्पदा ।
सचित्त परियोदपनं, एतं बुद्धानसासनं ॥”
– सभी प्रकार के पापों को न करना; कुशल [पुण्य] कार्यों का संपादन करना; अपने चित्त को परिशुद्ध करना; यह है समस्त बुद्धों की शिक्षा ।
“तुम्हेहि किच्चं आतप्पं, अक्खातारो तथागता ।
पटिपन्ना पमोक्खन्ति, झायिनो मारबन्धना ॥”
– सभी तथागत बुद्ध केवल मार्ग आख्यात कर देते हैं; विधि सिखा देते हैं, अभ्यास और प्रयत्न तो तुम्हें ही करना है। जो स्वयं मार्ग पर आरूढ़ होते हैं; ध्यान में रत होते हैं, वे मार यानी मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाते हैं।
“अत्ता हि अत्तनो नाथो, अत्ता हि अत्तनो गति ।
तस्मा सञमयत्तानं, अस्सं भद्रं व वाणिजो॥”
– तुम आप ही अपने स्वामी हो, आप ही अपनी गति हो! अपनी अच्छी या बुरी गति के तुम आपही तो जिम्मेदार हो! इसलिए अपने आपको वश में रखो वैसे ही, जैसे कि घोड़ों का कुशल व्यापारी श्रेष्ठ घोड़ों को पालतू बनाकर वश में रखता है। संयत रखता है।
“मनोपुब्बङ्गमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया।
मनसा चे पदुद्वेन, भासति वा करोति वा।
ततो नं दुक्खमन्वेति, चक्कं व वहतो पदं ॥
मनसा चे पसनेन, भासति वा करोति वा ।
ततो नं सुखमन्वेति छायाव अनपायिनी ॥”
– सभी धर्म (अवस्थाएं) पहले मन में उत्पन्न होते हैं। मन ही मुख्य है, ये धर्म मनोमय हैं। जब आदमी मलिन मन से बोलता या कार्य करता है तो दुःख उसके पीछे ऐसे ही हो लेता है जैसे गाड़ी के पहिये बैल के पैरों के पीछे-पीछे । जब आदमी स्वच्छ मन से बोलता है या कार्य करता है तो सुख उसके पीछे ऐसे ही हो लेता है जैसे कभी साथ न छोड़ने वाली छाया ।
“फुट्ठस्स लोकधम्मेहि, चित्तं यस्स न कम्पति ।
असोकं विरजं खेमं, एतं मङ्गलमुत्तमं ॥”
– आठो लोकधर्मों (लाभ-हानि, यश-अपयश, सुख-दुःख, निंदा-प्रशंसा) के स्पर्श से चित्त विचलित नहीं होने देना, निःशोक, निर्मल और निर्भय रहना- ये श्रेष्ठ मंगल हैं।
“चक्खुना संवरो साधु, साधु सोतेन संवरो ।
घाणेन संवरो साधु, साधु जिह्वाय संवरो।
कायेन संवरो साधु, साधु वाचाय संवरो ।
मनसा संवरो साधु, साधु सब्बत्थ संवरो।
सब्बत्थ संवुतो भिक्खु, सब्बदुक्खा पमुच्चति ॥”
– आँख का संवर [संयम] भला है। भला है कान का संवर! नाक का संवर भला है भला है जीभ का संवर!
शरीर का संवर भला है भला है वाणी का संवर!
मन का संवर भला है भला है सर्वत्र संवर!
(मन और काया स्कंध में) सर्वत्र संवर रखने वाला भिक्षु (साधक) सब दुःखों से मुक्त हो जाता है।
“यतो यतो सम्मसति, खन्धानं उदयब्बयं।
लभती पीतिपामोजं, अमतं तं विजानतं ॥”
– साधक सम्यक सजगता के साथ जब-जब शरीर और चित्त स्कंधों के उदय-व्यय रूपी अनित्यता की विपश्यनानुभूति करता है तब-तब प्रीति-प्रमोद रूपी अध्यात्म सुख की उपलब्धि करता है। यह जानने वालों के लिए अमृत है।
“सब्बे सङ्खारा अनिच्चा’ति, यदा पञ्जाय पस्सति ।
अथ निबिन्दति दुक्खे, एस मग्गो विसुद्धिया ॥”
– सभी संस्कार अनित्य हैं, यानी जो कुछ उत्पन्न होता है, वह नष्ट होता ही है। इस सच्चाई को जब कोई विपश्यना-प्रज्ञा से देखता है तो उसके सभी दुःख दूर हो जाते हैं। ऐसा है यह विशुद्धि का मार्ग!
“अनिच्चावत सङ्खारा, उप्पादवय धम्मिनो।
उपज्जित्वा निरुज्झन्ति, तेसं वुपसमो सुखो ॥”
– सचमुच! सारे संस्कार अनित्य ही तो हैं। उत्पन्न होने वाली सभी स्थितियां, वस्तु, व्यक्ति अनित्य ही तो हैं। उत्पन्न होना और नष्ट हो जाना, यह तो इनका धर्म ही है, स्वभाव ही है। विपश्यना-साधना के अभ्यास द्वारा उत्पन्न हो कर निरुद्ध होने वाले इस प्रपंच का जब पूर्णतया उपशमन हो जाता है – पुनः उत्पन्न होने का क्रम समाप्त हो जाता है, वही परम सुख है। वही निर्वाण-सुख है।
“सब्बो पज्जलितो लोको, सब्बो लोको पकम्पितो।”
– सारे लोक प्रज्वलित ही प्रज्वलित हैं। सारे लोक प्रकम्पित ही प्रकम्पित है।
“खीणं पुराणं नवं नथिसम्भवं, विरत्तचित्तायतिके भवस्मि। ते खीणबीजा अविरुळ्हिछन्दा, निब्बन्ति धीरा यथायं पदीपो॥”
– जिनके सारे पुराने कर्म क्षीण हो गये हैं और नयों की उत्पत्ति नहीं होती; पुनर्जन्म में जिनकी आसक्ति समाप्त हो गयी है, वे क्षीण-बीज तृष्णा-विमुक्त अर्हत उसी प्रकार निर्वाण को प्राप्त होते हैं जैसे कि तेल समाप्त होने पर यह प्रदीप!
“कत्वान कट्ठमुदरं इव गन्भिनीयं। चिञ्चाय दुट्ठवचनं जनकाय मज्झे। सन्तेन सोम विधिना जितवा मुनिन्दो। तं तेजसा भवतु ते जयमंगलानि ॥”
– पेट पर काठ बाँध कर गर्भिणी का स्वांग भरने वाली चिञ्चा द्वारा भरी सभा के बीच कहे गये दुष्ट वचनों को जिन मुनींद्र भगवान बुद्ध ने शांति और सौम्यता के बल पर जीत लिया, उनके तेज प्रताप से जय हो! मंगल हो!!
🌹 पटिच्च समुप्पादः प्रतीत्य समुत्पाद 🌹
🍂अनुलोम🍂
अविज्जापच्चया सङ्खारा, सङ्खारपच्चया विञ्ञाणं, विञ्ञाणपच्चया नामरूपं, नामरूपपच्चया सळायतनं, सलायतनपच्चया फस्सो, फस्सपच्चया वेदना, वेदनापच्चया तण्हा, तण्हापच्चया उपादानं, उपादानपच्चया भवो, भवपच्चया जाति, जातिपच्चया जरा-मरणं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासासम्भवन्ति ।
एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स समुदयो होति ।
– अविद्या के प्रत्यय [कारण] से संस्कार, संस्कार के प्रत्यय से विज्ञान, विज्ञान के प्रत्यय से नाम-रूप, नामरूप के प्रत्यय से छह-आयतन, छह-आयतन के प्रत्यय से स्पर्श, स्पर्श के प्रत्यय से वेदना, वेदना के प्रत्यय से तृष्णा [राग-द्वेष], तृष्णा के प्रत्यय से उपादान [आसक्ति], उपादान के प्रयत्न से भव, भव के प्रत्यय से जाति [जन्म], जाति के प्रत्यय से बूढ़ा होना, मरना, शोक करना, रोना, पीटना, दुःखित, बेचैन और परेशान होना होता है। इस प्रकार सारा का सारा दुःख-स्कंध ही उठ खड़ा होता है।
🍂पटिलोम🍂
अविज्जायत्वेव असेस विरागनिरोधा, सङ्खारनिरोधो,
सङ्खारनिरोधा, विञ्ञाणनिरोधो, विञ्ञाणनिरोधा, नामरूपनिरोधो, नामरूपनिरोधा, सलायतननिरोधो, सलायतननिरोधा, फस्सनिरोधो, फस्सनिरोधा, वेदनानिरोधो, वेदनानिरोधा, तण्हानिरोधो, तण्हानिरोधा, उपादाननिरोधो, उपादाननिरोधा, भवनिरोधो, भवनिरोधा, जातिनिरोधो, जातिनिरोधा, जरामरणं, सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा निरुज्झन्ति ।
एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स निरोधो होति ।
– अविद्या के संपूर्णतः रुक जाने से संस्कार रुक जाता है। संस्कार के रुक जाने से विज्ञान रुक जाता है। विज्ञान के रुक जाने से नाम-रूप रुक जाता है। नाम-रूप के रुक जाने से छह आयतन रुक जाते है। छह आयतन के रुक जाने से स्पर्श रुक जाता है। स्पर्श के रुक जाने से वेदना रुक जाती है। वेदना के रुक जाने से तृष्णा रुक जाती है। तृष्णा के रुक जाने से उपादान रुक जाता है। उपादान के रुक जाने से भव रुक जाता है। भव के रुक जाने से जनमना रुक जाता है। जनमने के रुक जाने से बूढ़ा होना, मरना शोक करना, रोना, पीटना, दुःखित, बेचैन और परेशान होना रुक जाता है। इस प्रकार सारा का सारा दुःख स्कंध ही रुक जाता है।
वर्ष ८, बुद्धवर्ष २५२२, मार्गशीर्ष पूर्णिमा, दि. १४-१२-१९७८, अंक ६
विपश्यना पत्रिका संग्रह (भाग-3)
विपश्यना विशोधन विन्यास ।।

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