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मन बंधन का मूल

मन बंधन का मूल है, मन ही मुक्ति उपाय। विकृत मन जकड़ा रहे, निर्विकार खुल जाय ॥ मन के भीतर ही छिपी, स्वर्ग सुखों की खान । मन के भीतर धधकती, ज्वाला नरक समान ॥ कुदरत का कानून है, सब पर लागू होय । मैले मन व्याकुल रहे, निर्मल सुखिया होय ॥ अपने मन का […]

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क्या होता हैं मृत्यु के समय ?

इसे समझने के पहले थोड़े में यह समझ लें कि मृत्यु है क्या? सत्य सतत् प्रवहमान परिवर्तनशील नदी जैसी भावधारा की एक मोड़ है, उसका एक पलटाव है, एक घुमाव है। लगता यों है कि मृत्यु हुई तो भवधारा ही समाप्त हो गयी। परतु बुद्ध या अहंत हो तो बात अलग है अन्यथा सामान्य व्यक्ति

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धर्म का प्रसार

ऐतिहासिक तथ्यों से ज्ञात होता है कि भगवान के जीवनकाल में सम्राट बिंबिसार, महाराज शुद्धोदन और महाराज प्रसेनजित आदि स्वयं धर्म धारण करके अत्यंत लाभान्वित हुए इसलिए स्वभावतः वे इसमें अनेकों को भागीदार बनाना चाहते थे। उन्होंने अपने-अपने साम्राज्यों में भगवान की शिक्षा के प्रसार में उत्साहपूर्वक सहायता की। परंतु वास्तव में जन-जन में धर्म

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विपश्यना केंद्रों का निर्माण और उनका महत्त्व

विपश्यना के प्रचार-प्रसार के लिए धर्म-केंद्रों का विकास एक नये चरण का संकेत है। इसकी सार्थकता को समझना बहुत आवश्यक है। विपश्यना केंद्र, सदस्यों के मौज-मस्ती के लिए बनाये गये क्लब नहीं हैं। न ही वे सांप्रदायिक समारोह मनाने हेतु मंदिर है और न ही सामाजिक गतिविधियों के लिए सार्वजनीन स्थल। ये ऐसे आश्रय-स्थल भी

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भगवान बुद्ध के ऐतिहासिक स्थल

महापरिनिर्वाण के समय बुद्ध ने आनंद से कहा – “आनंद” धर्म पथ पर दृढ़तापूर्वक चलने वाले लोगों की यात्रा हेतु चार स्थान है जो उन्हें धर्म के लिए और अधिक प्रेरित करेंगे। ये स्थान हैं:- लुम्बिनी – जहां बुद्ध का जन्म हुआ है। बोधगया- जहां बुद्ध को सम्यक संबोधि प्राप्त हुई है। सारनाथ – जहां

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मृत्यु से सामना

मैंने तुरंत गर्दन को पीछे, दाहिनी ओर पलट कर देखा तो मेरे होशोहवास उड़ गये। मेरी नजर अब ब्राऊन कलर के उस नागराज पर थी और मेरे मेरुदंड से सटे नागराज की दो काली गोलाकार आंखे दाहिनी ओर नीचे चमक रही थीं। देखते ही मैं समझ गया कि मृत्यु सामने नागराज के रूप में खड़ी

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बुद्धानुयायी होने की नींव

बुद्धानुयायी वह है जो बुद्ध, धर्म और संघ में शरण ग्रहण करता है। चार तरह के बुद्धानुयायी होते हैं यथा 1. भय (जो खतरे के कारण बुद्धानुयायी बनते हैं। 2. लाभ (जो अपनी तुष्टि के लिए बुद्धानुयायी बनते हैं) 3. कुल (जो जन्मजात बुद्धानुयायी हैं) 4. श्रद्धा (जो श्रद्धा के कारण बुद्धानुयायी हैं) बुद्धानुयायी को

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आओ, दस पारमिताओं को समझे

“दानं शीलं च नेक्खमं, वीरियं पञ्ञा च पंचमं । खन्ति मेत्ता अधिट्ठानं, सच्च उपेक्खा च दसमं ॥” [ दान, शील, निष्क्रमण, वीर्य, प्रज्ञा क्षांति, मैत्री, अधिष्ठान, सत्य, उपेक्षा ] दस पारमिताएं हैं जिन्हें हर एक को अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पूरा करना अनिवार्य है। अंतिम लक्ष्य है अहंकार, ममकार से शून्य होना ।

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क्या होता हैं मृत्यु के समय ?

इसे समझने के पहले थोड़े में यह समझ लें कि मृत्यु है क्या? सत्य सतत् प्रवहमान परिवर्तनशील नदी जैसी भावधारा की एक मोड़ है, उसका एक पलटाव है, एक घुमाव है। लगता यों है कि मृत्यु हुई तो भवधारा ही समाप्त हो गयी। परतु बुद्ध या अहंत हो तो बात अलग है अन्यथा सामान्य व्यक्ति

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रतनसुत्त, अंगुलिमाल परित्त एवं सत्य-क्रिया

रतनसुत्त (RATAN SUTTA) (एक बार जब वैशाली नगरी भयंकर रोगों, अमानवी उपद्रवों और दुर्भिक्ष-पीड़ाओं से संतप्त हो उठी, तो इन तीनों प्रकार के दुःखों का शमन करने के लिए महास्थविर आनंद ने भगवान के अनंत गुणों का स्मरण किया।) शत-सहस-कोटि चक्रवालों के वासी सभी देवगण जिसके प्रताप को स्वीकार करते हैं तथा जिसके प्रभाव से

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