उत्तर- सबसे बड़ा लाभ तो यह है की जीवन में जब कभी कोई कठिनाई आए, फट सांस पर काम करना शुरू कर दें। इससे तुरंत लाभ मिलना शुरू हो जाएगा।
1) परीक्षा के समय लोग नर्वस(चिंतित) हो जाते हैं और याद की हुई बातें भूल जाते हैं। प्रश्न पत्र( question paper) खोलने से पूर्व यदि 2-3 मिनिट तक सांस को जानने का काम कर लिया जाय तो सारी व्याकुलता दूर हो जाती है और याद की हुई बातें स्मृति(memory) पर उभर आती हैं। इससे परीक्षा में निश्चित(definite) सफलता मिलती है।
2) किसी सार्वजनिक सभा (public meeting) में बोलने से पहले यदि 1-2 मिनिट तक साँस को जानते रहें तो मन अत्यंत स्थिर हो जाता है और बिना किसी घबराहट के धारा प्रवाह बोल सकते हैं।
3) कभी मन भटक रहा हो, बैचैन हो तो आना पान पर काम करने से मन का भटकाव और बेचैनी दूर हो जाती है।
4) वर्तमान में जीने का अभ्यास दृढ (firm) होने लगता है।
बिना किसी प्रयोजन के भूतकाल में लोट प्लोट(wandering unnecessarily in past and future) लगाना अथवा भविष्य की चिंता करते रहना हमें दुखी ही बनाते हैं।
5) दिवास्वप्नो( day dreams) जिसमे मानस की बहुत सी शक्ति व्यर्थ चली जाती है, से छुटकारा हो जाता है।
6) यदि किसी से खटपट(dispute) हो जाए और क्रोध उभरने लगे तो देखेंगे की साँस तेज हो गया। इस तेज साँस को देखने लगेंगे तो देखते देखते गुस्सा शांत हो जाएगा।
7) छोटी उम्र में बच्चों को धूम्रपान(smoking) या अन्य किसी प्रकार का व्यसन लग जाए तो यदि वह इनकी तलब( craving) लगने पर थोड़ी देर आना पान का काम करे तो इन व्यसनों की पकड़ ढीली पड़ने लगती है।
गुरूजी- जो बच्चों के कोर्स हैं इन्हे बढ़ावा देने की बहुत ही आवश्यकता है।अगली पीढ़ी इस देश की भी व इस विशव की भी एक ऐसी मानवता को तैयार करे जो सारे संसार में सुख शांति का वातावरण तैयार कर सके।इस छोटी उम्र में ही धर्म का बीज पड़ सके इस और प्रयत्नशील होना चाहिये।
यह धर्म का जीवन जीने का बीज जितनी जल्दी पड़ जाए उतना ही जीवन अधिक सुखी होगा। इससे मन को वश में करने की विद्या मिलती है, जो जीवन में बहुत काम आएगी। बच्चों के लिए शील सदाचार का जीवन जीना आसान हो जायेगा।
सांस सांस को जानना,
यह ही आनापान।
जितना जाने सांस को,
हो उतना कल्याण।
आते जाते सांस पर,
पहरा लगे कठोर।
मन भटके तो मोड़ लें,
पुनः सांस की ओर।
इस पावन अभ्यास से,
चित्त सुधरता जाय।
एक एक कर पाप की,
परत उतरती जाय।
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प्रश्न–कभी कभी शिक्षक होने के नाते राग को बढ़ाना पड़ता है और द्वेष को भी। क्रोध भी करना पड़ता है।
उत्तर–उन्ही के कल्याण के लिये क्रोध आया।हम तो सिखा रहे हैं एक अच्छी बात और वह बच्चा सीख ही नही रहा है। हमें क्रोध आया, दो चांटे भी लगाए-ठीक रास्ते चलो। यह रास्ता अच्छा है।
लेकिन अगर विपश्यना नही कर रहे हो तो देखोगे की यह करते हुए हमने जो क्रोध जगाया तो अपने आप को दुखी बनाया, और उस क्रोध के साथ जो वाणी हमने कही– भले ही न्यायिकरण(justify) तो करते हैं की हम ऐसा नही कहते तो वह समझता ही नही।
लेकिन उस वाणी के साथ जो तरंगे गयी वे तरंगे उसे कहीं भी समझने लायक नही बनाएंगी। वह और भी ज्यादा व्याकुल होकर गलत रास्ते जाएगा।
तो क्या करें ?
जब क्रोध करना हो– हम इसे क्रोध नही कहते, माने जब कठोरता का व्यवहार करना हो; क्योंकि उस बच्चे को मृदु भाषा बहुत कह कर देख चुके, कुछ भी असर नही होता उसपर।
कठोरता की ही भाषा समझता है, तो पहले अपने भीतर देखेंगे–
अंदर समता है ना !
क्रोध तो नही जाग रहा है ना।
और इसी बच्चे के प्रति करुणा जाग रही है ना। और कोई भाषा समझता ही नही है यह, तो बड़ी कठोरता से व्यवहार करेंगे। भीतर तो करुणा ही करुणा है। यह अंतर आएगा।
कठोरता की जगह कटुता आ जाती है तो वह अपने लिये भी हानिकारक है, औरो के लिये भी हानिकारक होती है।
यह इस विद्या से सीखेंगे।
संवेदना जाग रही है। हमको कुछ करना है, तो भीतर क्या संवेदना है, और उस संवेदना से हम नही प्रभावित होते।
हम तो समता में हैं, और यह समझ रहे हैं कि इस व्यक्ति के साथ कठोरता का व्यवहार करना है।