ऐतिहासिक तथ्यों से ज्ञात होता है कि भगवान के जीवनकाल में सम्राट बिंबिसार, महाराज शुद्धोदन और महाराज प्रसेनजित आदि स्वयं धर्म धारण करके अत्यंत लाभान्वित हुए इसलिए स्वभावतः वे इसमें अनेकों को भागीदार बनाना चाहते थे। उन्होंने अपने-अपने साम्राज्यों में भगवान की शिक्षा के प्रसार में उत्साहपूर्वक सहायता की।
परंतु वास्तव में जन-जन में धर्म का प्रसार केवल राजकीय संरक्षण के कारण नहीं, बल्कि धर्म के अपने तत्काल लाभकारी परिणामों के कारण हुआ। यह विधि दुःख विमुक्ति के लिए अभ्यासरत साधक के चित्त से लोभ, द्वेष और मोह के सभी विकारों का निर्मूलन कर देती है। यह एक सहज, सार्वजनीन विधि है, जिसका अभ्यास किसी भी वर्ग, जाति अथवा संप्रदाय के स्त्री या पुरुष द्वारा किया जा सकता है और सबको समान परिणाम मिलते हैं ।
दुःख सार्वजनीन है। अनचाही होती रहती है। मनचाही कभी होती है और कभी नहीं भी होती है। किसी भी सार्वजनीन रोग का सार्वजनीन उपचार ही होना चाहिये। धर्म ही वह उपचार है। बुद्ध ने करुणा से भरकर, मुक्त हस्त से इसे पूरे उत्तर भारत (मज्झिम देश) में बांटा, जिससे वहां के लोग बहुत बड़ी संख्या में आकर्षित हुए।
इसी तरह भगवान के जीवनकाल के बाद, ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में, सम्राट अशोक के शासनकाल में धर्म का खूब प्रसार हुआ। अशोक के शिलालेख इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि लोगों के द्वारा इस विद्या का व्यावहारिक उपयोग करने के कारण ही ऐसा हुआ। स्वयं अशोक ने निश्चित रूप से इसके कल्याणकारी प्रभाव को अनुभव किया होगा, तभी तो उसने धर्मप्रसार का कार्य इतने बड़े उत्साह से किया।
स्वयं लाभान्वित हुआ तभी लोगों की सेवा करने के अपने शुभ संकल्प के कारण ही ऐसा कर पाया, जो शुद्धचित्त की चेतना से ही संभव है और इसीलिए उसने जनता के भौतिक तथा आध्यात्मिक उत्थान के लिए इतना अथक प्रयास किया। सातवें शिलालेख में उसने इस कार्य में अपनी सफलता के दो कारण बतलाये हैं।
प्रथम अपने राज्य में धर्म का शासन होना और दूसरा, जिस पर उसने अधिक बल दिया- वह था साधना अर्थात धर्म का स्वानुभूतिजन्य अभ्यास अर्थात व्यावहारिक पक्ष । इससे निष्कर्ष निकलता है कि उसने धर्म के सक्रिय अभ्यास को धर्म प्रसार का प्रमुख अशोक के संरक्षण में तीसरी धर्म संगीति के आयोजन के बाद धर्म को अधिक से अधिक लोगों तक सुलभ करने के लिए उत्तरी भारत के अन्य नौ
क्षेत्रों में पूर्णतया विमुक्त हुए अरहत भिक्षुओं को भेजा गया।
इन भिक्षुओं को धर्मदूत कहा जाता था। स्वभावतः उन्होंने धर्म के व्यावहारिक पक्ष को ही अधिक महत्त्व दिया, जिससे वे स्वयं चित्त के विकारों से मुक्त हुए थे। मैत्री और करूणा से जोत-प्रोत इन्होंने बहुत बड़ी संख्या में लोगों को मुक्ति के मार्ग की ओर आकर्षित किया।
सम्राट अशोक द्वारा प्रेषित प्रमुख भिक्षुओं के नाम और नौ स्थान जहां पर दे धर्मशिक्षा हेतु गये, निम्न प्रकार है:-
१) स्थविर मझांतिक-कश्मीर और गांधार (कश्मीर, अफगानिस्तान और उत्तरी पश्चिमी पाकिस्तान में पेशावर तथा रावलपिंडी)
२) स्थविर महादेव – महिसमंडल (मैसूर)
३) स्थविर योनक धम्मररिखत- अपरांतक (वर्तमान उत्तरी गुजरात, काठियावाड़, कहा और सिंध)
४) स्थविर रक्खित- वनवासी (दक्षिण भारत में उत्तरी कन्नड़ प्रदेश)
५) स्थविर महाधम्म रक्खित- महारट्ठ (गोदावरी के उद्गम के आसपास के महाराष्ट्र के भाग)
६) स्थविर महारक्खित- योनकलोक (प्राचीन यूनान)
७) स्थविर मझिम – हिमवंत प्रदेश (हिमालय क्षेत्र)
८) स्थविर सोण और उत्तर- सुवण्ण भूमि (बर्मा)
९) स्थविर महेंद्र तथा अन्य- ताम्बपन्निद्वीप, (ताम्रपर्णी द्वीप अर्थात श्रीलंका)
अशोक ने सुदूरवर्ती क्षेत्रों, वर्तमान सीरिया और मिश्र तक आचार्यों को भेजा। उसने भावी पीडियों के लिए पूरे विश्व में धर्म प्रसार का मार्ग प्रशस्त उसके पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए सम्राट कनिष्क ने कुमारजीव और बोधिधम्म जैसे स्थविरों को मध्य एशिया और चीन भेजा।
वहां से चौथी शताब्दी के प्रारंभ में धर्म कोरिया पहुँचा और उसके बाद जापान में फैला। भारत में तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशिला जैसे कई धर्म-विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई एवं उनका विपुल विकास हुआ, जहां पर चीन जैसे सुदूरवर्ती देश के विद्वान भी आकर्षित हुए।
धर्म का प्रसार संपूर्ण दक्षिणपूर्व एशिया तक हो गया। थाईलैंड, कंबोडिया, लाओस, वियतनाम तथा इंडोनेशिया में बहुत बड़ी संख्या में लोग इसको धारण करने लगे। शांतिरक्षित, पद्मसंभव, अतिश और कमलशील के द्वारा धर्म तिब्बत में भी पहुँच गया। परंतु कालांतर में इसका व्यावहारिक पक्ष प्रायः सभी देशों से लुप्त हो गया।
वर्तमान समय में वही साधना जिसका भगवान बुद्ध ने आज से 2500 वर्ष पहले प्रशिक्षण दिया था, केवल ब्रह्मदेश में गुरु-शिष्य परंपरा से अक्षुण्ण रूप से जीवित रही और आज पुनः पल्लवित पुष्पित हो रही है और आज भी वैसे ही परिणाम आ रहे है जैसे कि उस समय आते थे। भारत तथा विश्व के अनेक देशों के हजारों लोग, हर तबके के नर-नारी ‘विपश्यना’ सीख रहे हैं।
लोगों का धर्म के प्रति आकर्षण होने का कारण वही है जो आज से 2500 वर्ष पूर्व भी था – इस शिक्षा का अत्यंत व्यावहारिक स्वरूप, जो सुस्पष्ट है, सुस्पृश्य है, सांदृष्टिक है, कल्याणकारी है, सरल है, आशुफलदायी है और कदम-दर-कदम लक्ष्य की ओर ले जाता है।
अब जब कि पुनः बहुत बड़ी संख्या में लोग धर्म का अभ्यास करने लगे हैं तो हम बुद्ध के जीवनकाल और बाद में अशोक के शासनकाल के समय का जनजीवन कैसा था, इसकी एक परिकल्पना कर सकते हैं। भविष्य में हम जैसे करोड़ों लोग धर्म को धारण करके मैत्री, करुणा विवेक और शांति में प्रतिष्ठित होते जायेंगे, अपने समाज के लिये भी शांतता व सामंजस्य से ओतप्रोत समाज की परिकल्पना कर सकते हैं।
सबका मंगल हो, सब में शांति और सद्भावना बनी रहे।
पुस्तक: गौतम बुद्ध, जीवन परिचय और शिक्षा ।
विपश्यना विशोधन विन्यास ।।
भवतु सब्ब मंङ्गलं !!