महापरिनिर्वाण के समय बुद्ध ने आनंद से कहा – “आनंद” धर्म पथ पर दृढ़तापूर्वक चलने वाले लोगों की यात्रा हेतु चार स्थान है जो उन्हें धर्म के लिए और अधिक प्रेरित करेंगे।
ये स्थान हैं:-
लुम्बिनी – जहां बुद्ध का जन्म हुआ है।
बोधगया- जहां बुद्ध को सम्यक संबोधि प्राप्त हुई है।
सारनाथ – जहां बुद्ध ने धर्मचक्र प्रवर्तन प्रारम्भ किया।
कुशीनगर- जहां बुद्ध महापरिनिर्वाण को प्राप्त होंगे।
बुद्ध के जीवनकाल से संबद्ध अथवा उनके महापरिनिर्वाण के बाद कुछ शताब्दियों तक धर्म प्रसार के लिये प्रसिद्ध अनेक स्थान हैं। उनमें से कुछ विशिष्ट स्थानों का वर्णन निम्नवत है :-
लुम्बिनी
इसी पवित्र स्थान पर बुद्ध का जन्म हुआ था। आज यह नेपाल में है और इसे रुम्मनदेई के नाम से जाना जाता है। यहां एक प्राचीन मंदिर है जिसमें राजकुमार सिद्धार्थ के रूप में उनके जन्म को दर्शाती हुई एक प्रतिमा है। इस स्थान पर एक शिलालेख है जिस पर सम्राट अशोक के राज्यारोहण के बीसवें वर्ष में उनके द्वारा इस स्थान की यात्रा का विवरण खुदा हुआ है। यहां पर अशोक काल के विहारों के अवशेष भी हैं।
बोधगया
इस स्थान पर बुद्ध ने सम्यक संबोधि प्राप्त की थी। यह बिहार में गया से दक्षिण छ: मील की दूरी पर स्थित है। यहां बोधिवृक्ष की शाखा आज भी जीवित है और साथ में महाबोधि मंदिर है। इसके आसपास अन्य मंदिर और राजसी स्मारक सुशोभित हैं।
महाबोधि मंदिर की ऊंचाई लगभग एक सौ साठ फुट है जिसमें सर्वोत्तम घटना (बोधि प्राप्त होने की) के प्रतीक स्वरूप भूस्पर्श करती हुई बुद्ध की एक विशाल सुनहली मूर्ति स्थापित है। मंदिर के पश्चिम की ओर एक बोधि वृक्ष और लाल पत्थर की एक पट्टी है जो बजासन का प्रतीक है जिस पर बैठकर उन्होंने बोधि प्राप्त की थी। सम्राट अशोक ने इस स्थान की यात्रा की थी जिसका विवरण उसके एक शिलालेख पर अंकित है।
सारनाथ
यहां पर प्राप्त शिलालेखों में यह स्थान धर्मचक्र विहार के रूप में वर्णित है। प्राचीनकाल में मृगदाय के नाम से प्रसिद्ध इस स्थान पर बुद्ध ने अपने बुद्धत्वपूर्व के पांच सहयोगियों को धर्म का प्रथम उपदेश दिया था, जिसके परिणामस्वरूप वे पांचों यहीं पर पूर्ण मुक्त अवस्था पर पहुँचे थे। सारनाथ में प्राचीन खंडहर विस्तृत भूभाग में फैले हुए हैं।
सम्राट अशोक ने यहां अनेक स्मारक बनवाये, जिनमें से एक है धम्मिक स्तूप, जो लगभग एक सौ पचास फुट की ऊंचाई का था, जिसके भव्य अवशेष आज भी विद्यमान हैं। महाबोधि सभा द्वारा निर्मित मूलगंधकुटी विहार वर्तमान समय का प्रमुख आकर्षण है। तक्षशिला, नागार्जुनकोंडा और मीरपुर खास से प्राप्त प्राचीन अवशेष यहां प्रतिष्ठित हैं।
मूलतः अशोक की लाट के ऊपरी भाग पर बनी शेरों की अनुकृति को, जो अब भारत का राष्ट्रचिह्न है, सारनाथ संग्रहालय में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। सारनाथ उत्तरप्रदेश में वाराणसी से लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
कुशीनारा (कुशीनगर)
यहीं पर युग्म शाल वृक्षों के बीच लेटकर बुद्ध महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए थे। यहां एक विशाल चैत्य (स्तूप) है जो गुप्तकाल का है। यहां प्राचीन काल के मंदिरों और विहारों के अनेक खंडहर हैं। कुछ समय पूर्व यहां पर एक मंदिर का निर्माण किया गया है जिसमें बुद्ध के महापरिनिर्वाण को दर्शाती हुई लेटी हुई मुद्रा में एक विशाल प्रतिमा स्थापित है।
यहीं समीप में रामभार नाम से विख्यात एक बड़ा टीला है, जहां कभी एक विशाल स्तूप अवस्थित था, जहां बुद्ध का अंतिम संस्कार किया गया था और उनकी धातुओं को आठ बराबर भागों में बांटा गया था, और तत्पश्चात उन्हें विभिन्न स्थानों पर स्तूपों में संस्थापित किया गया था।
सावत्थी (श्रावस्ती)
भगवान के जीवनकाल में यह तत्कालीन भारत के सबसे बड़े नगरों में से एक था । आज यहां सहेट-महेट नाम का एक छोटा-सा गांव है जो उत्तर प्रदेश राज्य में कुशीनगर से उत्तर पश्चिमी दिशा में लगभग एक सौ पचास किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहीं पर उस समय के धनी व्यापारी अनाथपिडिक ने धरती पर सोना बिछाकर जेत राजकुमार का उद्यान खरीदकर दस हजार लोगों के लिए उपयुक्त एक विहार का निर्माण करवाया था। यहां बुद्ध ने पच्चीस वर्षावास व्यतीत किये थे। आज भी यहां अनेक प्राचीन स्तूपों और विहारों की नीवों के अवशेष विद्यमान हैं।
राजगह (राजगृह)
विहार राज्य का वर्तमान राजगीर, जहां किसी समय शक्तिशाली मगध साम्राज्य की राजधानी थी और भगवान बुद्ध के जीवन से बहुत समीप से जुड़ी हुई थी। यहां पर सम्राट बिंबिसार द्वारा दान में प्रदत्त उद्यान वेणुवन स्थित है और इसके अतिरिक्त गिज्झकूट पर्वत भी, जो नगर के समीप स्थित था, और बुद्ध को एकांतवास के लिये विशेष प्रिय था। इसी स्थान पर बुद्ध के चचेरे भाई देवदत्त ने उनकी कई बार हत्या कराने की कोशिश की थी। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात यहीं पर प्रथम धम्म संगीति का आयोजन किया गया था।
वैशाली
वैशाली नगर जिसे आज बिहार राज्य के मुजफ्फरपुर जिले में बसाढ़ के नाम से जाना जाता है, एक समय शक्तिशाली लिच्छवी राजाओं की राजधानी थी। वह प्रारंभ से धर्म का प्रमुख गढ़ था। यहीं पर बुद्ध ने अपने महापरिनिर्वाण के सन्निकट होने की घोषणा की थी। बुद्ध के देह त्याग के लगभग सौ वर्ष पश्चात यहीं पर दूसरी धर्म संगीति सभा संयोजित की गई थी।
संकस्सा (संकिसा)
संकस्सा जिसे आज उत्तर प्रदेश के फरुखाबाद जिले में संकिसा कहा जाता है, वह स्थान है जहां पर बुद्ध तावतिंस देवलोक से पृथ्वी पर आये थे। तावतिंस में वे अपनी माता तथा अन्य देवों को अभिधम्म की शिक्षा प्रदान करने गये थे। यहां प्राचीनकाल के अनेक स्तूपों और विहारों के अवशेष मौजूद सांची अशोक के शासनकाल से ही मध्यप्रदेश में स्थित सांची धर्मकार्य का प्रमुख केंद्र था।
यहां एक सौ फुट व्यास का, पचास फुट ऊंचा विशाल स्तूप उस समय से अब तक विद्यमान है। इसके चारों प्रमुख द्वारों पर जातक कथाओं और बुद्ध के जीवनकाल की घटनाओं की नक्काशी की गई है। इस स्तूप में बुद्ध के दो प्रमुख शिष्यों सारिपुत्र और महामोग्गल्लान की देहधातु स्थापित है।
नालंदा
बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद अनेक शताब्दियों तक नालंदा के विहार अत्यंत प्रसिद्ध रहे। इस स्थान पर बुद्ध अनेक बार पधारे थे। यहां के विहार सम्राट अशोक के काल के हैं। नालंदा शिक्षा का प्रमुख केंद्र था जो शताब्दियों तक विद्वान आचार्यों के लिए प्रसिद्ध रहा। यहां के खंडहर विशाल भूभाग में फैले हुए हैं जिनमें विहार, स्तूप तथा मंदिर हैं। समीप में, यहां के संग्रहालय में खुदाई से प्राप्त अनेकों मूर्तियां और प्राचीन कलाकृतियां रखी हुई हैं।
पुस्तक: गौतम बुद्ध, जीवन परिचय और शिक्षा ।
विपश्यना विशोधन विन्यास ।।
भवतु सब्ब मंङ्गलं !!