मृतक के लिये साधना ही करे।
विपश्यना की हर बैठक के बाद मन ही मन मृतक को याद करे और संकल्प करे की मेरी साधना के पूण्य में आप भी भागीदार हों।
मृतक का इस पूण्य-वितरण से बढ़कर और कोई कल्याणकारी श्राद्ध नही हो सकता।
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” तुम इस समय जहाँ हों, जिस अवस्था में हों, जिस लोक में हों, जिस योनि में हों- तुम्हारा मंगल हो! तुम्हारा कल्याण हो! तुम्हारी स्वस्तिमुक्ति हो! तुम धर्म के पथ पर आगे बढ़कर भवचक्र से शीघ्र छुटकारा पाओ! “
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निर्मल चित्त के कारण मैत्री करते समय जो पुलक- रोमांच होता है, उससे मैत्री की तरंगे तीव्र हो जाती हैं, और मृतक व्यक्ति जहाँ कहीं भी हो, जिस किसी अवस्था में हो, इन तरंगो के संपर्क से पुलकित हो उठता है, आह्लाद- प्रल्हाद से भर उठता है।
यह संभव है कि उसे अपने पूर्व जन्म की रंचमात्र भी स्मृति न हो और वह यह भी न जाने कि कोई उसे मैत्री भेज रहा है, पर फिर भी प्रभावित होता है और लाभान्वित होता है।भले कुछ समय के लिये ही सही वह प्रसन्नचित्त हो उठता है। धर्मपथ की और आकर्षित होता है।
ऐसी मैत्री बड़ी सार्थक होती है, सुफलदायिनी होती है।
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ऐसा चाहते हुए भी अपनी नासमझी के कारण करता यह है कि अपने प्रिय को व्याकुल, बैचन, अशांत बनाता है।
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अगर कोई दुखी होकर रो रहा है तो स्वंय समता में रहे और उसे कुछ सांत्वना(console)प्रदान कर उसका रोना बंद करने में मदद करें।
उसके साथ रोकर तो अपने को दुखी बनायेगे और वह व्यक्ति और दुखी होगा।
इसलिए कभी रोना मत।
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तब किसी को जो शब्द कहें जायेंगे वे अधिक प्रभावशाली होंगे।
अगर खुद भीतर से विचलित होंगे तो आपके शब्द भले ही वे धर्म के शब्द होंगे,निरर्थक(non fruitful)होंगे।
इसलिए खुद संतुलित(समता) में रहें।
इस विद्या से संतुलित रहने में मदद मिलेगी।