सद्धर्म की शुद्धता

भारत में भगवान बुद्ध का सद्धर्म क्यों और कैसे लुप्त हुआ, इसे समझने के लिए दो हजार वर्ष पूर्व के इतिहास का निरीक्षण करना होगा। उस समय तक भिक्षुओं में सेक्ख भी थे और असेक्ख भी। सेक्ख माने वह जो अभी सीख रहा है। असेक्ख माने वह जो अरहंत हो गया। यानी जिसे सीखने के लिए अब कुछ शेष नहीं रहा। मुक्त हो गया। सभी बंधनों से छूट गया। जो कुछ करणीय था उसे पूरा कर लिया। कृतकृत्य हो गया। इसका मतलब तब तक स्रोतापन्न, सकृदागामी, अनागामी भी थे और अरहंत भी। परंतु इसके बाद कुछ विरोधी तत्त्वों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से सद्धर्म को नष्ट करने का बीड़ा उठाया। अनेक भिक्षु मृत हुए। जो बचे वे भारत छोड़ कर भाग गये। अधिकांश बुद्धविहार नष्ट हो गये। जो बचे वे सद्धर्म की शुद्धता को कायम नहीं रख पाये। इसी कारण भारत में चौथा संगायन नहीं हो पाया, क्योंकि संगायन के लायक प्रबुद्ध भिक्षु ही नहीं रह गये थे। कुछ समय पश्चात दुर्भाग्य से खजुराहो-संस्कृति और देवदासी-प्रथा ने जोर पकड़ा, जिससे अनेक मंदिर भ्रष्ट हुए। सर्वत्र कामाचार ही कामाचार फैल गया। बचे हुए बुद्धविहार भी इस दूषण से नहीं बच सके। वे दुराचार के अड्डे बन गये। इसका दुष्प्रभाव दूर-दूर तक फैला । यह दूषण बिहार, बंगाल, आसाम, मणिपुर होता हुआ उत्तर म्यंमा में प्रवेश कर गया। वहां से दक्षिण की ओर आगे बढ़ते-बढ़ते म्यंमा की राजधानी ‘पगान’ तक जा पहुँचा और वहां के बुद्धविहारों को काम-संबंधी भ्रष्टाचार का केंद्र बना दिया।
सुत्तन्तेसु असन्तेसु, पमुड़े विनयम्हि च। तमो भविस्सति लोके, सूरिये अत्थङ्गते यथा ॥
– (अङ्गुत्तरनिकाय अट्ठकथा १.१.१३०)
– धर्मसूत्र विद्यमान न रहने पर और धर्मपालन विस्मृत हो जाने पर संसार में सूर्यास्त-सदृश अंधकार छा जाता है।
मध्य म्यंमा में धर्म के नाम पर फैले इस दुराचार के बारे में जब दक्षिण की स्वर्णभूमि के अरहंत धम्मदस्सी ने सुना तब वे पगान गये। वहां उन्होंने धर्म की जो दुर्दशा देखी, उसे देख कर सन्न रह गये। उन्होंने राजा अनिरुद्ध से मिल कर जब भगवान के शुद्ध सद्धर्म की वाणी सुनायी और समझायी तब उसकी आंखें खुली रह गयीं। उसने पगान के भिक्षुओं पर लगाम कसी। वहां के भिक्षु अपने आप को अरिय, यानी आर्य कहते थे। जबकि वस्तुतः ये सद्धर्म के दुश्मन थे, अरि थे। राजा ने उन सब के कपड़े उतरवा लिये और भिक्षुपद से च्युत करके उन्हें गृहस्थ बना दिया। इसीलिए राजधानी पगान का नया नाम अरिमर्दनपुर रखा गया। जब यह दूषण समाप्त हुआ तब वहां भी तिपिटक और विपश्यना को अपने शुद्ध रूप में कायम रखने का मार्ग प्रशस्त हुआ।
सद्धर्म का विकास सम्राट अशोक के संरक्षण और अरहंत भदंत मोग्गलिपुत्त तिस्स की अध्यक्षता में भारत में जो तीसरा संगायन संपन्न हुआ, उसके पश्चात सम्राट अशोक ने मोग्गलिपुत्त तिस्स के निर्देशन में नौ देशों में धर्मदूत भेजे जो अपने साथ शुद्ध धर्मवाणी और विपश्यना विद्या लेकर गये। सौभाग्य से दक्षिण म्यंमा (स्वर्णभूमि) में अरहंत सोण और उत्तर के साथ जो बुद्धवाणी और विपश्यना भेजी गयी, उसे वहां के धर्मप्रेमी भिक्षुओं और साधकों ने अपने शुद्ध रूप में संभाल कर रखा। वाणी की शुद्धता कायम रखने के लिए सारा तिपिटक कंठस्थ रखने की परंपरा कायम रखी गयी। कुछ भिक्षु तिपिटकधर थे, माने तीनों पिटक उन्हें कंठस्थ थे। या फिर कम-से-कम एक पिटकधर यानी सुत्तधर, विनयधर या अभिधम्मधर में से कोई एक थे। दूसरी ओर पटिपत्ति यानी विपश्यना विद्या को भी उसके शुद्ध रूप में कायम रखा गया। वहां सेक्ख और असेक्ख की परंपरा भी जीवित रही।
सम्राट अशोक ने भिक्षु महेंद्र को पांच भिक्षुओं के साथ श्रीलंका भेजा और वहां के राजा प्रियदर्शी तिष्य ने उन्हें पूरा सहयोग दिया। कुछ समय पश्चात अशोक की पुत्री भिक्षुणी संघमित्रा भी श्रीलंका गयी और महिलाओं में धर्म का खूब प्रचार-प्रसार हुआ। इस प्रकार श्रीलंका में शुद्ध धर्म की स्थापना हुई और इसे आगे बढ़ाने का प्रयास सफल हुआ।
इसी कड़ी में चौथा संगायन श्रीलंका के राजा वट्टगामिनी के संरक्षण में और अरहंत महारक्खित की अध्यक्षता में संपन्न हुआ, जिसमें सारा तिपिटक ताड़पत्रों पर लिखा गया। यों धम्मवाणी और अधिक सुरक्षित हो गयी। चिरकाल तक वहां विपश्यना विद्या भी कायम रही।
पांचवां संगायन म्यंमा में राजा मिन-डो-मिन के राज्य में हुआ। इसमें भिन्न-भिन्न देशों के ऐसे भिक्षु भी शामिल हुए जो कि या तो तिपिटकधर थे या फिर सुत्तधर, विनयधर या अभिधम्मधर में से कोई एक। इसमें सारा तिपिटक संगमरमर की पट्टियों पर उत्कीर्ण किया गया। प्रधानमंत्री ऊ नू के समय म्यंमा में ही छठा संगायन हुआ। इसमें म्यंमा, श्रीलंका, थाईलैंड, कंबोडिया, लाओस और भारत के कुछ भिक्षुओं ने मिल कर संगायन किया। तब परियत्ति का यह सारा साहित्य मॅम लिपि में पुस्तकरूप में छापा गया। इस प्रकार इन संगायनों द्वारा वाणी को शुद्धरूप में सुरक्षित रखा गया।
सुत्तन्ते रक्खिते सन्ते, पटिपत्ति होति रक्खिता।
पटिपत्तियं ठितो धीरो, योगक्खेमा न धंसति ॥
– (अङ्गुत्तरनिकाय अट्ठकथा १.१.१३०) –
धर्मसूत्र सुरक्षित रहने पर पटिपत्ति यानी विपश्यना साधना का प्रतिपादन सुरक्षित रहता है। प्रतिपादन में लगा हुआ धीर व्यक्ति योगक्षेम से वंचित नहीं होता है।
जहां तक पटिपत्ति यानी विपश्यना विद्या का प्रश्न है, यह भी पगान से उत्तर की ओर शुद्ध रूप में फैली । परंतु आगे जाकर कुछ लोगों ने इसमें मिश्रण कर दिया। फिर भी इसकी एक क्षीण धारा गुरु-शिष्य परंपरा से बिल्कुल शुद्धरूप में कायम रही। इसी धारा में हम वर्तमान समय के भिक्षु लैडी सयाडो को देखते हैं। भिक्षु धम्मदस्सी से लेकर भिक्षु लैडी सयाडो तक यह विद्या अपने शुद्ध रूप में कायम रही, यही हमारे लिए बड़े सौभाग्य की बात रही। भिक्षु लैडी सयाडो का दृढ़ विश्वास था कि बुद्ध का प्रथम शासन, यानी 2500 वर्ष पूरे होने पर, द्वितीय शासन विपश्यना से आरंभ होगा। इस द्वितीय शासन में भारत में विपश्यना सिखाने का काम भिक्षुओं की अपेक्षा गृहस्थों के लिए अधिक आसान होगा। भगवान बुद्ध के समय गृहस्थ उपासक-उपासिकाएं भी विपश्यना के आचार्य-आचार्या हुआ करते थे। उन्होंने देखा कि भिक्षु-भिक्षुणियों के अतिरिक्त गृहस्थ उपासक-उपासिकाओं को भी विपश्यना साधना में प्रशिक्षित करना होगा। अतः यह विद्या गृहस्थों तक जानी चाहिए। तब उन्होंने गृहस्थों के लिए विपश्यना का द्वार खोल दिया। परिणामस्वरूप उन्होंने सयातैजी जैसे एक उत्कृष्ट किसान को विपश्यना का प्रथम गृहस्थ आचार्य नियुक्त किया। इसके बाद विश्वविश्रुत सयाजी ऊ बा खिन दूसरे गृहस्थ आचार्य हुए जिनके कारण ही विपश्यना और बुद्धवाणी अपने शुद्ध रूप में भारत तथा विश्व को प्राप्त हुई।
विपश्यना सांप्रदायिक न होकर सार्वजनीन होने के कारण, इसमें सभी संप्रदायों के लोग सम्मिलित होते हैं। उनके आचार्य भी सम्मिलित होते हैं। इस विद्या का किसी ने विरोध नहीं किया। भगवान की विपश्यना विद्या सर्वत्र सर्वमान्य हुई है। पिछले 40 वर्षों में 80 से अधिक देशों में लोगों के कल्याण में सहायक हुई है। एक हजार से अधिक सहायक आचार्य 150 से अधिक निवासीय स्थायी केंद्रों के अतिरिक्त, अनेक अस्थाई केंद्रों पर भी शिविर लगाते रहते हैं। लगभग 1200 बालशिविर-शिक्षक स्थान-स्थान पर बच्चों के शिविर लगाते रहते हैं। प्रवचनों और निर्देशों के कैसेट या सीडीज विभिन्न भाषाओं में अनूदित होकर दुनिया की लगभग साठ भाषाओं में उपलब्ध करायी गयी हैं, जिनके माध्यम से विपश्यना के शिविर लगाये जाते हैं।
जहां तक बुद्धवाणी का प्रश्न है इसकी शुद्धता कायम रखना अब आसान हो गया है। अब इसमें कोई छेड़छाड़ नहीं कर सकता, क्योंकि आधुनिक तकनीक के अनुसार यह सीडी-रोम में और इंटरनेट में पहुँच गयी है।
परंतु विपश्यना में बिगाड़ होने की आशंका अवश्य है। गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन इसके लिए बहुत सतर्क थे कि बुद्ध की जिस सही परंपरा से उन्हें विपश्यना मिली है, उसमें कहीं कोई बदलाव न आ जाय। इसलिए अब जब यह भारत में आयी है तब सयाजी ऊ बा खिन की विचारधारा के अनुसार उनकी सिखायी हुई विद्या को जीवित रखने की जिम्मेदारी हमारी है। यह विद्या जिस प्रकार सिखायी गयी, जिन निर्देशों एवं प्रवचनों से सिखायी गयी, उनका प्रयोग पिछले चालीस वर्षों में भारत में ही नहीं, विश्वभर में हुआ। बुद्धानुयायी देशों में भी हुआ। कहीं किसी ने कोई ऐतराज नहीं किया । चाहे वे बुद्धशिक्षा के पंडित हों अथवा किसी अन्य परंपरा के, उन सब ने इस वैज्ञानिक और आशुफलदायिनी तकनीक को सहर्ष स्वीकार किया। अतः जो विद्या सर्वमान्य हो चुकी है, उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन करना बिल्कुल नासमझी की बात होगी। फिर भी किसी सहायक आचार्य को अथवा किसी साधक को, शिक्षा का और प्रवचन का कोई भी अंश ऐसा लगे कि यह धर्म के अनुकूल नहीं है। तो उसकी सूचना मुझे देनी चाहिए। उस पर चिंतन-मनन करके, बदलना ठीक लगेगा तो अवश्य बदल दूंगा। परंतु कोई (सहायक) आचार्य, परंपरा से चली आ रही इस विधि में और इससे संबंधित रूटीन में, अपने मन से कोई परिवर्तन न करे । स्वतंत्ररूप से यदि कोई आचार्य कुछ कहेगा तो उसमें गलती हो सकती है।
इस परंपरा के महान नेता सम्राट अशोक ने अपने शिलालेख में लिखवाया कि “जो व्यक्ति अपने संप्रदाय की प्रशंसा करता है और दूसरे संप्रदाय की निंदा, वह अपने संप्रदाय की ही बढ़चढ़ कर हानि करता है।”
इसी आदर्श को लेकर सद्धर्म का काम किया जा रहा है। जी । विद्या म्यंमा में सदियों तक अपने शुद्धरूप में सुरक्षित रखी गयी वही भारत आयी है। इसका चालीस वर्षों तक उपयोग हुआ और उसमें भाग लेने वालों ने अभी तक कोई ऐतराज नहीं किया। अतः यह सर्वमान्य है। इसे इसी प्रकार शुद्ध रूप में कायम रखना चाहिए।
गुरुदेव ऊ बा खिन ने कहा कि जहां-जहां विपश्यना सिखायी जाय, उसके साथ अन्य कोई प्रैक्टिस नहीं जुड़ने पाये। उसका उन्होंने कारण दिया कि यदि अन्य कोई प्रैक्टिस जुड़ेगी तो वह प्रमुख हो जायगी और विपश्यना गौण। इसलिए ऐसी किसी शिक्षा को इसके साथ जुड़ने न दें। यदि कोई जोड़ता है तो उसे रोका जाता है। इसी प्रकार पिछले चालीस वर्षों में शुद्ध रूप में कायम रखी गयी है।
इसके कुछ उदाहरण –
किसी एक साधक ने स्वानुभव के आधार पर खाने-पीने के बहुत अच्छे सुझाव दिये, जिनसे स्वास्थ्य में बहुत लाभ होता है। परंतु विपश्यना के साथ जोड़ने पर वह खान-पान ही प्रमुख हो जायगा।
और विपश्यना गौण। इसलिए उस पर रोक लगायी गयी और शिविरों में सदा की भांति सामान्य भोजन ही दिया जाता रहा।
ऐसे ही एक प्रसिद्ध वैद्य ने शिविर किया तो सेवाभाव से विपश्यना से जुड़ गया । वह बड़े शुद्ध चित्त से, अच्छे भाव से शिविर में सेवा करने आने लगा कि कोई रोगी हो तो मैं उसकी सेवा करूंगा। यों करते-करते वह शिविरों में ऐसे जुड़ गया कि कुछ लोग चिकित्सा का लाभ उठाने के लिए ही शिविर में आने लगे। यदि इसे बढ़ावा दिया जाता तो विपश्यना शिविर न होकर, चिकित्सा केंद्र बन जाता। चिकित्सा प्राइम हो जाती और विपश्यना गौण । इसलिए उस पर भी रोक लगानी पड़ी।
ऐसे ही एक धर्मसेवक ने शिविर समापन के बाद कहा कि मैं तुम्हें योग सिखाऊंगा। उस योग से तुम्हारी विपश्यना अधिक अच्छी होने लगेगी। इसमें संदेह नहीं कि योग का अपना लाभ है, लेकिन जैसे ही विपश्यना के साथ जुड़ेगा, योग प्रमुख हो जायगा, विपश्यना गौण।।
इसी प्रकार एक विपश्यी बेटी अक्यूप्रेशर में प्रवीण हो गयी। वह चाहती थी धम्मगिरि में ही अपना एक केंद्र खोले तो लोगों को अधिक लाभ होगा। उसे मना कर दिया गया कि विपश्यना के साथ ऐसा कुछ नहीं जुड़ना चाहिए।
चाहे योग हो या अन्य शारीरिक क्रियाएं, वे सब अपनी जगह बहुत अच्छी हैं। इनसे हमारा कोई विरोध नहीं है। परंतु ये सब स्वतंत्र रूप से सिखायी जायँ। ये भूल कर भी विपश्यना शिविर से न जुड़े। विपश्यना मानसिक विकारों का जड़ों से उन्मूलन करके, साधक के बिगड़े स्वभाव को सुधारने का काम करती है। इस कारण मन से संबंधित कोई शारीरिक रोग हो तो वह अपने आप दूर हो जाता है। परंतु विपश्यना शारीरिक रोग दूर करने के लिए नहीं है। यह स्पष्ट रूप से समझते रहना चाहिए। शारीरिक स्वास्थ्य-विद्याएं अवश्य प्रशंसनीय हैं। भूल कर भी किसी की निंदा न हो। परंतु उनका प्रयोग स्वतंत्ररूप से हो । ध्यान यही रखना है कि विपश्यना के शिविरों से वे न जुड़ जायँ। इसलिए विपश्यना सिखाने वालों की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। कि वे इसे सुरक्षित रखें और इसमें किसी भी प्रकार का कोई मिश्रण न होने दें, चाहे वह स्वतंत्र रूप से कितना ही अच्छा और कल्याणकारी क्यों न लगे। विश्वास है वे सतर्क रहेंगे। अपनी जिम्मेदारी को सजगतापूर्वक निभायेंगे और अधिक-से-अधिक लोगों की मानसिक विकार-विमुक्ति के मंगल में सहायक होंगे। ऐसा करेंगे तो सब का मंगल ही होगा । सब के मंगल में अपना भी मंगल समाया हुआ है। सब का कल्याण हो! सब की स्वस्ति-मुक्ति हो!
मंगल मित्र,
सत्य नारायण गोयन्का
मार्च 2010 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित
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